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________________ श्री संवेगरंगशाला ३६६ गुणों का नाश करता है वैसे-वैसे दोषों का आगमन होता है और जैसे-जैसे दोषों का संक्रमण होता है वैसे-वैसे मनुष्य निन्दा का पात्र बनता है। इस तरह परपरिवाद अनर्थ-अमंगल का मुख्य कारण है । परपरिवाद करने वाले मनुष्य में दोष न हो तो भी दोषों का प्रवेश होता है और यदि हो तो वह बहुत, बहुत्तर और बहुत्तम मजबूत स्थिर होता है। जो मनुष्य दूसरों के प्रति मत्सर और अपने उत्कर्ष से परनिन्दा करता है वह अन्य जन्मों में भी चिरकाल तक हल्की योनियों में परिभ्रमण करता है। धन्य पुरुष गुण रत्नों को हरने वाले और दोषों को करने वाले जानकर परनिन्दा को नहीं करते हैं। क्योंकि श्री जैनेश्वरों ने तदुलवेयालिय ग्रन्थ में कहा है कि-जो सदा परनिन्दा को करता है, आठ मद के विस्तार में प्रसन्न होता है और अन्य की लक्ष्मी देखकर जलता है, वह सकषायी हमेशा दुःखी होता है । कुल, गण और संघ से भी बाहर किया हुआ तथा कलह और विवाद में रुचि रखने वाले साधु को निश्चय देवलोक में भी देवों की सभाओं में बैठने का स्थान नहीं मिलता है । इसलिए जो दूसरे लोक व्यवहार विरुद्ध अकार्य को करता है और उस कार्य को जो दूसरा निन्दा करता है वह पर के दोष से मिथ्या दुःखी होता है। अच्छी तरह संयम में उद्यमशील साधु को भी (१) आत्म प्रशंसा, (२) परनिन्दा, (३) जीभ, (४) जननेन्द्रिय और (५) कषाय ये पाँच संयम से रहित करता है । परनिन्दा की प्रकृति वाला जिन-जिन दोषों से अथवा वचन द्वारा दूसरे को दूषित करता है उन-उन दोषों को वह स्वयं प्राप्त करता है। इसलिए वह आदर्शनीय है । परपरिवाद में आसक्त और अन्य के दोषों को बोलने वाला जीव भवान्तर में जाने के बाद स्वयं उन्हीं दोषों को अनन्तानंत गुणा प्राप्त करता है । इस कारण से परपरिवाद अति भयंकर विपाक वाला है, सैंकड़ों संकट का संयोग वाला है, समस्त गुणों को खींचकर ले जाने वाली दुष्ट आंधी है और सुख रूपी पर्वत को नाश करने में वज्रपात समान है, इस जन्म में सर्व दुःखों का खजाना और जन्मान्तर में दुर्गति के अन्दर गिराने वाला है, उस जीव को संसार से कहीं पर भी जाने नहीं देता है। सुभद्रा के श्वसुर वर्ग के समान अपयश के बाद से मार गया तथा परनिन्दा के व्यसनी लोग में निन्दा को प्राप्त करता है और निन्दा करते भी उस श्वसुर वर्ग की निन्दा को नहीं करने वाली दैवी सहायता को प्राप्त करके महासत्त्व वाली उस सुभद्रा ने कीर्ति प्राप्त की। वह इस प्रकार
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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