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________________ श्री संवेगरंगशाला १६ को समझाता, विविध पाप स्थानों में प्रवृत्ति करता और परलोक के भय का अपमान करके अपने हाथ से बकरों को अग्नि में होम करता था। ऐसा करते हुए बहुत समय व्यतीत हुआ एक दिन राजा ने बड़ा अश्वमेघ नामक महायज्ञ प्रारम्भ किया। उसमें राजा ने तुझे बुलाया, और परमभक्ति पूर्वक सत्कार किया, यज्ञ के लिए लक्षण वाले घोड़ों को एकत्रित किए उन घोड़ों को तूनें वेद शास्त्र की प्रसिद्ध विधि से मंत्रित किया, इतने में ऐसी यज्ञ विधि देखते, एक घोड़े के बच्चे को किसी स्थान पर ऐसा देखा है ऐसा इहा अपोह (चिन्तन) करतेकरते जाति स्मरण ज्ञान हुआ, और उस ज्ञान से उसे जानकारी हुई कि-पूर्व जन्म में यज्ञ विधि में विचलन बने मैंने भय से कांपते बहुत पशु आदि को यज्ञ में होम किया है। इस प्रकार पूर्व जन्म का पाप जानकर भय से दुःखी उसने चिन्तन किया कि-अहो ! मनुष्य धर्म के वास्ते भी पाप को किस तरह इकट्ठा करता है ? भोले व्यक्तियों को वे कहते हैं कि-'यज्ञ में मरे हए जीव स्वर्ग में जाते हैं और अग्नि में होम से देव तृप्त होते हैं। वे पापी यह नहीं समझते कि यदि यज्ञ से मरे हुए स्वर्ग जाते हैं तो स्वर्ग के अभिलाषी स्वजन सम्बन्धियों को उसमें होम करना योग्य गिना जाएगा । अथवा प्रचंड पाखड के झूठे मार्ग में पड़े हुए भद्रिक परिणामी लोगों का इसमें क्या दोष है ? इस विषय में वेद पाठक अपराधी है। इससे यदि मैं पापिष्ठ अति दुष्ट प्रवृत्ति वाले इस पाठक को मार दूं तो यज्ञ निमित्त में लाए हुए ये घोड़े जीते रहेंगे। ऐसा विचार कर उसने कटोर ख़र से उसके छाती पर इस तरह प्रहार किया कि जिससे तू उसो समय प्राण मुक्त हुआ। और अति हिसा की अभिलाषा के आधीन बने अति पाप से पहल नरक के अन्दर घटालय (घड़े के समान स्थान में) नामक नरकावास में तू नरक रूप जीव हुआ, जब मुहूर्त मात्र में छह प्रकार की पर्याप्ति से वहाँ तू पूर्ण शरीर वाला बना, तब किलकिलाट शब्द को करते अत्यन्त निर्दय, महाक्रू र विभत्स रूप वाल और भयानक परमाधामी देव शीघ्रतापूर्वक वहाँ आए, और अरे ! दुःख भोगते तू वज्र के घड़े में किसलिए रहा है, बाहर निकल ! ऐसा कहकर वमय संडासी द्वारा तेरे शरीर को खींचकर निकाला, उसके बाद करूण स्वर से चीख मारते तेरे शरीर को उन्होंने तीक्ष्ण शस्त्र से सूक्ष्म-सूक्ष्म टुकड़े करके काटा, अति सूक्ष्म टुकड़े करने के बाद फिर पारे के समान शरीर मिल गया, भय से कांपते और भागते तुझे उन्होंने सहसा पकड़ा उसके बाद इच्छा न होने पर तुझे पकाने के लिए नीचे जलती हुई तेज अग्नि वाले वज्र की कुंभि में जबरदस्ती डाला । और वहाँ जलते शरीर वाला प्यास से अत्यन्त दुःखी होता, तू उनके सामने विरस शब्दों में कहने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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