SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० श्री संवेगरंगशाला लगा कि-तुम्ही माता पिता हो, भाई, स्वजन, बन्धु और स्वामी तुम्ही हो, तुम्ही मेरा शरण रूप हो, और रक्षण हो तथा आप ही मेरे देव हो। अतः एक क्षण मुझे छोड़ दो, अब मैहरबानी करके शीतल पानी पीलाओ। इस प्रकार तूने कहा, तब मधुरवाणी से उन्होंने कहा कि-अरे! वज्रकुंभि के मध्य में से निकाल कर इस विचारे को शीतल पानी पीलाओ तब अन्य परमाधामियों ने तहत्ति रूप स्वीकार करके तपे हुये अति गरम कलई ताँबा और सीसा के रसपात्र भर कर (यह ठंडा जल है) ऐसा बोलते उन महापापियों ने तुझे पीलाया, तब अग्नि समान उससे जलते और इससे गले को हिलाते इच्छा न होते हुए भी तेरा मुख को संडासी से खोलकर उस रस को गले तक पीलाया, फिर उस रस से जलते सम्पूर्ण शरीर वाला और मूर्छा आने से आंखें बंद हो गई, इससे तू जमीन पर गिर पड़ा, पुनः क्षण में चैतन्य आया 'असिवन में ठंडी है अतः वहाँ जाऊ' ऐसा संकल्प कर तू वहाँ गया, परन्तु वहाँ के वृक्ष के पत्ते तलवार समान होने से, उसके नीचे बैठने से पत्तों द्वारा तेरा शरीर छेदन होने लगा। और वहाँ से भी तुझे उन्होंने उछलते तरंगों से व्याप्त, आवतवाला और प्रज्वलित अग्नि समान वैतरणी नदी के पानी में फेंका, वहाँ भी बिजली के समान उद्भट भयंकर बड़े-बड़े तरंगों की प्रेरणा के वश होकर डुबना पड़ा, ऊपर आना, आगे चलना, रुक जाना आदि से व्याकुल बना, सर्व अंगों से युक्त तू सूखे वृक्ष के लकड़े जैसे किनारे पर आ जाता है वैसे महा मुसीबत से दुःख पूर्वक उस नदी के सामने किनारे पर पहुँच कर वहाँ बैठा, तब हर्षित बने उन परमाधामियों ने बैठे हुए ही तुझे पकड़कर बैल के समान अतीव्र भार वाले रथ में जोड़ा और भाले समान तीक्ष्ण धार युक्त परोण (तलवार) से बार-बार तुझे छेदन करते थे उसके बाद वहाँ तू थक गया और जब किसी भी स्थान पर नहीं जा सका तब भारी हथोड़े द्वारा हे महाभाग्य तुझे चकनाचूर कर दिया, इसके अतिरिक्त भी विकट शिलाओं के ऊपर तुझे जोर से पछाड़ा, भालाओं से भेदन किया, कखतों से छेदन किया, विचित्र यन्त्रों से पीसा, और अग्नि में पकाये हुए तेरे शरीर के मांस के टुकड़े कर तुझे खाने लगे, तथा विचित्र दण्डों के प्रहारों से बारम्बार ताडन किया, परमाधामियों ने बड़े शरीर वाला पक्षियों का रूप बनाकर तुझे दो हाथ से ऊँचा करके, करुण स्वर से रोते हुए भी अति तीक्ष्ण नखों से तथा चोंच से बारम्बार मारा। - इस प्रकार हे नरेन्द्र ! नरक में उत्पन्न हुआ जो दुःख तूने अनुभव किया वह सर्व कहने के लिए तीन जगत के नाथ परमात्मा ही समर्थ हो सकते हैं। इस तरह एक सागरोपम तक भयंकर नरक में रह कर वहाँ असंख्य दुःखों को
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy