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________________ श्री संवेगरंगशाला है, उसके पहले उस पुरुष ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और कहा कि-हे महाशय वाले ! शोक छोड़ दो, ये विविध क्रीड़ाओं से क्या हुआ यह मायावी इन्द्रजाल है, सत्य नहीं है, मैं पुरुष नहीं हैं तथा मुझे तेरी स्त्री का कोई प्रयोजन भी नहीं है। हे राजन् ! तेरा तापस मार्ग में जाने का पराक्रम सामान्य नहीं है, किन्तु इस प्रस्ताव द्वारा मुझे कहना कि-मैं देव हूँ और पूर्व स्नेह के कारण प्रथम देवलोक से मैं तुझे प्रतिबोध करने के लिए आया हूँ । हे मित्र ! तूं क्यों भूल गया है कि जिस पूर्वभव में यमुना नदी के प्रदेश में अनेक लक्षण युक्त शरीर वाला तू हाथी था, वहाँ महान् राजा के समान सात अंग से श्रेय, विषय में आसक्त, झरते मद के विस्तार वाला, रोषपूर्वक शत्रु हाथियों का नाश करने वाला, बहुत हाथियों के समूह से घिरा हुआ तू उस स्थान में स्वेच्छानुसार घूमता फिरता था। ... एक दिन तुझे हाथी के मांस को खाने की इच्छा वाले युवा भिल्लों ने देखा, इससे उन्होंने सांकल के बंधन बांधने आदि उपायों से और बाण के प्रहार से तेरे परिवार युक्त सारे हाथियों के समूह का नाश किया, तूने तो अप्रमत्ता से और भागने का कुशलता से, उनके उपाय रूपी पीड़ाओं को दूर से त्याग करके उनसे बचकर चिरकाल तक अपना रक्षण किया, परन्तु उसके बाद अन्य किसी दिन उन्होंने तुझे पकड़ने के लिए सरोवर में उतरने के मार्ग पर खड्डा खोदकर ऊपर घास आदि डालकर खड्डा ढक दिया और उसके ऊपर इस तरह धूल बिछा दी कि जिससे वह खड्डा जमीन जैसा हो गया, उसके बाद वृक्षों को घटा में छपकर वे तुझे देखते रहे तू भी उनको नहीं देखने से निःशंक मन वाला पूर्व की तरह पानी पीने आते विवश अंग वाला अचानक उस गड्डे में गिरा, अरे तू अतिपिड़ित है, चिर जीवित है अब कहाँ जायेगा ? ऐसा कोलाहल करते युवा भिल्ल वहाँ आए और उन्होंने निर्दयता से तेरे कुंभस्थल को चीरकर उसमें से मोती और जीते ही तेरे दाँत को भी निकाल लिए उस समय भयानक वेदनारूप प्रबल अग्नि की ज्वालाओं के समूह से तपा हुआ तू एक क्षण जीकर उसी समय मर गया। वहाँ से गंगा नदो के प्रदेश में हरिन रूप उत्पन्न हुआ, वहाँ भी बाल अवस्था में तुझे तेरे यूथ के नायक हरिन ने मार दिया। वहाँ से मरकर मगध देश में शालि नामक गांव में सोमदत्त नाम के ब्राह्मण का तू बन्धुदत्त नामक पुत्र हुआ और वहाँ ब्राह्मण के योग्य विद्याओं का तूने अभ्यास किया, इससे यज्ञ की विधि में परम चतुरता से तू 'यज्ञ चतुर' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इससे लोग जहाँ किसी स्थान पर स्वर्ग के लिए अथवा रोग शान्ति के लिए यज्ञ करते थे उसमें तुझे सर्वप्रथम ले जाते थे। वहाँ तू भी यज्ञ की विधि
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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