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________________ ३४६ श्री संवेगरंगशाला क्षमा करते विशुद्ध मन वाला जीव श्री चंडरुद्र सूरि के समान तत्काल कर्मक्षय करता है। उसकी कथा इस प्रकार है : चंडरुद्राचार्य की कथा उज्जैन नगर में गीतार्थ और पाप का त्याग करने में तत्पर चंद्ररुद्र नाम के प्रसिद्ध आचार्य थे। एवं वे स्वभाव से ही प्रचंड क्रोध होने से मुनियों के बीच बैठने में असमर्थ थे, इससे अन्य साधुओं से रहित स्थान में स्वाध्याय ध्यान में तत्पर बनकर प्रयत्नपूर्वक अपने अपशम भाव से अत्यन्त तन्मय करते गच्छ की निश्रा में रहते थे। एक समय क्रीड़ा करने का प्रेमी प्रिय मित्रों से युक्त नयी शादी वाला शृङ्गार से युक्त एक धनवान का पुत्र तीन मार्ग वाले तिराहे, चोराहे तथा चार मार्ग वाले चौराहे आदि में सर्वत्र फिरते हये वहाँ आया और हँसी पूर्वक उन साधुओं को नमस्कार करके उनके चरणों के पास बैठा । उसके बाद उसके मित्रों ने मजाक से कहा कि-हे भगवन्त ! संसार वास से अत्यन्त उद्विग्न बना हुआ यह हमारा मित्र दीक्षा लेने की इच्छा रखता है, इसीलिए ही श्रेष्ठ शृङ्गार करके यहां आया है इसलिए दीक्षा दो । उसके भाव जानने में कुशल मनियों ने उनकी मजाक जानकर अजान के समान कुछ भी उत्तर दिये बिना अपने कार्यों को करने लगे। फिर भी बार-बार बोलने लगे जब वे चिरकाल तक बोलते रुके नहीं तब 'इन शिक्षा वाले को भले शिक्षा दे' ऐसा विचार कर साधुओं ने कहा-'एकान्त में हमारे गुरूदेव चंडरुद्राचार्य बैठे हैं वे दीक्षा देंगे।' ऐसा कहकर उन्होंने गुरू का स्थान बतलाया। फिर कुतूहल प्रिय प्रकृति वाले वे वहाँ से आचार्य श्री के पास गये और पूर्व के समान सेठ के पुत्र ने दीक्षा लेने की इच्छा प्रगट की। इससे 'अरे रे ! मेरे साथ भी ये वहाँ पापी कैसी हँसी करते हैं ?' ऐसा विचार करते आचार्य श्री को अतीव्र क्रोध चढ़ा और कहा कि-अहो ! यदि ऐसा है तो मुझे जल्दी राख दो। और उसके मित्रों ने शीघ्र ही कहीं से राख लाकर दी। फिर आचार्य श्री ने उस सेठ के पुत्र को मजबूत पकड़कर श्री नमस्कार महामन्त्र सुनाकर अपने हाथ से लोच करने लगे। भवितव्यतावश जब उसके मित्रों ने तथा उस सेठ के पुत्र ने कुछ भी नहीं कहा, तब उन्होंने मस्तक का पूरा लोच कर दिया। लोच होने के बाद सेठ के पुत्र ने कहा कि-भगवन्त ! इतने समय तक तो मजाक था, परन्तु अब सद्भाव प्रगट हुआ है, इसलिए कृपा करो और संसार समुद्र तरने में सर्वश्रेष्ठ नाव समान और मोक्ष नगर के सुख को देने वाली तथा जगत् गुरू श्री जैनेश्वर देवों के द्वारा कथित दीक्षा को भावपूर्वक दो।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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