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________________ श्री संवेगरंगशाला ३४५ विषय में भी सर्व अपराध को मैं खमाता हूँ। शत्रु-मित्र प्रति समचित्त वाले और सर्व जीवों के प्रति करुणा रस के एक समुद्र, उस श्रमण भगवन्त भी अनुकंपा पात्र मुझे क्षमा करें। इस तरह सम्यग् संवेगी मन वाला वह बाल, वृद्ध सहित सर्व श्री संघ को और फिर पूर्व में जिसके साथ विरोध हुआ हो उसको सविशेष क्षमा याचना करे। जैसे कि-प्रमाद से पूर्व में जो कोई भी मैंने आपके प्रति सद्वर्तन आदि नहीं किया हो, उन सबको वर्तमान में शल्य और कषाय से रहित मैं खमाता हूँ। इस तरह समता रूपी समुद्र को विकसाने में चन्द्र समान और संवेग मनरूपी भ्रमर के लिए विकासी पुष्पों के उद्यान सदृश संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला तीसरा ममत्व विच्छेद द्वार में आठवाँ क्षमापना नाम का अन्तर द्वार कहा है। अब क्षमा याचना योग्य वर्ग को क्षमा याचना करने पर स्वयं क्षमा न करे, तो वांछित सिद्धि नहीं होती है, इसलिए स्वयं का क्षामणा द्वार कहता हूँ। नौवाँ स्वयं क्षमणा द्वार :-सद्भावपूर्वक 'मिच्छामि टुक्कडं' देने आदि से जो कषाय को जीतना उसको यहाँ परमार्थ से श्रेष्ठ क्षमापणा कहा है। क्योंकि-पूर्व में तीव्र रस वाले, दीर्घ स्थिति वाले कठोर कर्मों का बन्धन किया हो, उसका नाश इस क्षमापणा से ही होता है । इस निर्यामक आचार्य के पास से सम्यग् प्रकार से सुनकर संवेग को धारण करते क्षपक मुनि पुनः इस प्रकार कहे-मैं सर्व अपराधों को खमाता हूँ, भगवन्त श्री संघ मुझे क्षमा करें, मैं भी मन, वचन, काया से शुद्ध होकर गुण के भण्डार श्री संघ को क्षमा करता हूँ। दूसरे को ज्ञात हो या अज्ञात हो सारे अपराध स्थानों को निश्चय यह त्रिकरण अति विशुद्ध आत्मा मैं सम्यक् रूप में खमाता हूँ। दूसरे मुझे जानते हों अथवा नहीं जानते हों, दूसरे मुझे खमाएँ अथवा नहीं खमाएँ तो भी त्रिविध शल्य रहित मैं स्वयं खमाता हूँ। इसलिये यदि सामने वाला भी क्षमा याचना करे, तो उभय पक्ष में श्रेष्ठ होता है और अत्यन्त अभिमान वाला, सामने वाला व्यक्ति क्षमा याचना नहीं कर सकता तो भी अहंकार के स्थान से वह मुक्त है । इस तरह विकास करते प्रशम के प्रकर्ष के ऊपर चढ़ते अति विशद्ध तीनों करण के समूह वाला समता में तल्लीन रहते क्षमा नहीं करने वाले को भी सामने वाले को समयग् क्षमापना करने में तत्पर यह मैं निश्चय स्वयं खमाता हूँ, क्योंकि मेरा यह काल क्षमा याचना का है। मैं सर्व जीवों को खमाता हूँ और वे सर्व भी मुझे क्षमा करें। मैं सर्व जीवों के प्रति वैर मुक्त और मैत्री भाव में तत्पर हैं। इस तरह अन्य को क्षमा याचना करता स्वयं भी
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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