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________________ श्री संवेगरंगशाला ३४७ ऐसा कहने से उस आचार्य ने उसे दीक्षा दी और दुःखी होते मित्र अपने-अपने स्थान पर चले गये । फिर उसने कहा कि - हे भगवन्त ! यहाँ मेरे बहुत स्वजन हैं, इसलिए मैं यहाँ निर्विघ्न धर्म को आराधना नहीं कर सकता हूँ, अतः दूसरे गाँव में जाना चाहिए। गुरू जी ने स्वीकार किया, और उसे मार्ग देखने के लिये भेजा, वह मार्ग देखकर आया । फिर वृद्धावस्था के कारण काम्पते हुए उस आचार्य ने उसके कंधे के ऊपर दाहिना हाथ रखकर धीरे-धीरे चलना प्रारम्भ किया । रात्री के अन्दर मार्ग में चक्षु बल से रहित उनको थोड़ी भी पैर की स्खलना होते ही क्रोधातुर हो जाते, नये साधु को बार-बार कठोर तिरस्कार करते थे और 'यह तूने ऐसा मार्ग देखा है ?' इस तरह बार-बार वचन बोलते दण्ड से मस्तक पर प्रहार करते थे । तब नव दीक्षित होने पर भी वह चिन्तन करता है कि - अहो ? महापाप के भाजन से मैंने इस महात्मा को ऐसे दुःख समुद्र में डाला है ? एक मैं ही शिष्य के बहाने धर्म के भण्डार इस गुरूदेव को प्रत्यनीकं ( शत्रु) बना हूँ । धिक्कार हो ! धिक्कार हो । मेरे दुराआचरण को । इसे तरह अपनी निन्दा उसे ऐसी कोई अपूर्व श्रेष्ठ भावना प्रगट हुई कि जिससे निर्मल केवल ज्ञान का प्रकाश प्रगट हुआ । उसके बाद निर्मल केवल ज्ञान रूप दीपक से तीन जगत का विस्तार प्रगट रूप में दिखने लगा, वह शिष्य सम्यग् रूप में चलने लगा, इससे गुरू जी के पैरों की स्खलना नहीं हुई । इस तरह चलते जब प्रभात हुआ तब दण्ड के प्रहार से खून निकला हुआ और मस्तक पर लगे हुए शिष्य को देखकर चंडरुद्र सूरि ने विचार किया कि - अहो ! प्रथम दिन का दीक्षित नये मुनि की ऐसी क्षमा है ? और चिरदीक्षित होने पर भी मेरा ऐसा आचरण है ? क्षमा गुण से रहित मेरे विवेक को धिक्कार है ! निष्फल मेरी श्रुत सम्पत्ति को धिक्कार है ! मेरे आचार्य पद को भी धिक्कार हो ! इस तरह संवेग प्राप्त करते श्रेष्ठ भक्ति से उस शिष्य को खमाते उन्होंने ऐसे श्रेष्ठ ध्यान को प्राप्त किया कि जिस ध्यान से वे केवली बने । इस तरह क्षमा याचना से और क्षमा से जीव पाप समूह को अत्यन्त नाश करते हैं, इसलिये यह क्षमा करने योग्य है । इस तरह अन्य के अपराध को खमाने में तत्पर क्षपक सर्वश्रेष्ठ तप समाधि में प्रवृत्ति करते अनेक जन्मों तक पीड़ा वाले कर्म को तोड़ते विचरण करता है वह इस प्रकार है : तीव्र महा मिथ्यात्व की वासना से व्याप्त और चिरकाल तक पापों को करने में अति समर्थ अट्ठारह पाप स्थानक का आचरण करने वाला प्रमाद रूपी महामद से उन्मत्त अथवा कषाय से कलुषित जीव ने पूर्व में दुर्गति की एक प्राप्ति करने में समर्थ जो कुछ भी पाप का बन्धन किया हो उसे शुद्ध
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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