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________________ श्री संवेगरंगशाला ४. विनयपूर्वक : - भक्ति एवं अति मानपूर्वक गुरू महाराज को उचित आसन देकर, वन्दन नमस्कार करके, दो हाथ जोड़कर, सन्मुख खड़े रहकर, संवेग रंग से निर्वेदी और विषयों से विरागी, वह महासात्त्विक आलोचक उत्कृष्ट से उत्कृष्ट आसन में और यदि बवासीर आदि रोग से पीड़ित हो या अनेक दोष सेवन किये हों और उसे कहने में अधिक समय लगने वाला हो तो गुरू महाराज की आज्ञा लेकर आसन पर बैठकर भक्ति और विनय से मस्तक नमाकर सर्व दोषों को यथार्थ स्वरूप निवेदन करे | ३१६ ५. ऋजु भावपूर्वक : - जैसे बालक बोलते समय कार्य अथवा अकार्य को जैसे देखा हो उसके अनुसार सरल भाव से बोलता है वैसे माया और अभिमान रहित आलोचक बालक के समान सरल स्वभाव से दोषों की आलोचना करे । ६. क्रमपूर्वक : - इसमें आसेवना क्रम और आलोचना क्रम दो प्रकार का क्रम है । उसमें आसेवना क्रम अर्थात् जो दोष जिस क्रम से सेवन किया हो उसी क्रम से आलोचना करे । आलोचना क्रम में बड़े-बड़े अपराधों की बाद में आलोचना करे 'पंचक' आदि से प्रायश्चित के क्रम से प्रथम छोटे दोष को कहना फिर जैसे- जैसे प्रायश्चित की वृद्धि हो उस-उस क्रम से आकुटिल द्वारा सेवन किया हो, कपट से सेवन किया हो, प्रमाद से सेवन किया हो, कल्पना से सेवन किया हो, जयणापूर्वक सेवन किया हो, अथवा अवश्य करने योग्य, कारण प्राप्त होने पर जयणा से सेवन किया हो उन-उन सर्व दोषों को यथास्थित जैसा सेवन किया हो उस प्रकार आलोचना करे । ७. छह श्रवण :- इसमें साधु को आचार्य और आलोचक इन दोनों के चार कान और साध्वी के कान जानना । वह इस तरह गुरू महाराज यदि वृद्ध हों तो अकेले और वृद्ध साध्वी हों, फिर भी दूसरी एक साध्वी को साथ में रखे । इस तरह तीन मिलकर छह कान में आलोचना करनी चाहिए और गुरू महाराज यदि युवा न हों, दूसरे साधु को रखकर और यदि साध्वी तरुण हों तो वृद्ध साध्वी को साथ रखकर, इस तरह दो साधु और दो साध्वी, इस प्रकार चार के समक्ष आठ कान में आलोचना देनी चाहिए । इस प्रकार आलोचना जिस तरह देनी, उस तरह संक्षेप से कहा है, अब आलोचना में जो अनेक प्रकार के दोषों की आलोचना करनी चाहिये, वह कहता हूँ । ७. क्या-क्या आलोचना करे ? - यह आलोचना ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इस प्रकार पाँच प्रकार के आचार में विरुद्ध प्रवृत्ति हो उसे
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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