SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला ३१५ आलोचना देनी चाहिए, उस कारण से सो कर या जागते अपराध को याद करके सम्यग रूप से मन में स्थिर करो, फिर ऋजुता-सरलता को प्राप्त करके, उन सब दोषों को तीन बार याद करके लेश्या से विशुद्ध होते शल्य के उद्धार के लिए श्री गुरूदेव के पास आए और पुनः संवेग को प्राप्त करते उसी तरह सम्यग् दोषों को कहे कि जिस प्रकार परिणाम की विशिष्टता से अन्य जन्मों में किए हुए भी कर्म छेदन-भेदन हो जाए। २. प्रशस्त द्रव्यादि का योग :-द्रव्य क्षेत्र आदि चारों भाव हैं। वह प्रत्येक प्रशस्त और अप्रशस्त इस तरह दो-दो भेद हैं, उसमें से अप्रशस्त को छोड़कर प्रशस्त में आलोचना करनी चाहिए। उसमें द्रव्य के अन्दर अमनोसतुच्छ धान्य का ढेर और तुच्छ वृक्ष यह अप्रशस्त द्रव्य हैं, क्षेत्र में गिरे हुए अथवा जला हुआ घर, उखड़ भूमि आदि स्थान, यह अप्रशस्त क्षेत्र हैं, काल में-दग्धातिथि, अमावस्या और दोनों पक्ष की अष्टमी, नौवीं, छठी, चतुर्थी तथा द्वादशी ये तिथियाँ तथा संध्यागत, रविगत आदि दुष्ट नक्षत्र और अशुभ योग ये सब अप्रशस्त काल जानना, भाव में-राग-द्वेष अथवा प्रमाद मोह आदि अप्रशस्त भाव जानना । इसे स्वदोष समझना, इन अप्रशस्त द्रव्यादि में आलोचना नहीं करना, परन्तु उसके प्रतिपक्षी प्रशस्त द्रव्यादि में करना, वह प्रशस्त द्रव्य में-सुवर्ण आदि अथवा क्षीर वृक्ष आदि के योग में आलोचना करना। प्रशस्त क्षेत्र में-गल्ले के क्षेत्र, चावल के क्षेत्र या श्री जैन मन्दिरादि हों वहाँ पर या जोर से आवाज करते या प्रदक्षिणावर्त वाले-जल के स्थान में आलोचना करना, प्रशस्त काल में-पूर्व में कहे उससे अन्य शेष तिथियाँ, नक्षत्र करण योग आदि में आलोचना करना और प्रशस्त भाव में-मन आदि की प्रसन्नता में और ग्रह आदि उच्च स्थान में हो अथवा प्रशस्त भावजनक सौम्य ग्रह से युक्त है पवित्र या पूर्ण लग्न में वर्तन हो, इस तरह शुभ द्रव्यादि का समुदाय वह इस विषय में प्रशस्त योग जानना । ३. प्रशस्त दिशा:-पूर्व उत्तर अथवा श्री जैनेश्वर आदि से लेकर नौपूर्वधर तक ज्ञानी महाराज जिस दिशा में विचरते हों अथवा जिस-जिस दिशा में श्री जैन मन्दिर हों वह दिशा उत्तम जानना, उसमें भी यदि आचार्य महाराज पूर्वाभिमुख बैठे हों तो आलोचक उत्तराभिमुख दाहिने ओर, और यदि आचार्य उत्तराभिमुख हों तो आलोचक पूर्वाभिमुख बायें ओर खड़े रहें। इस तरह परोपकार करने में श्रेष्ठ मन वाले आचार्य श्री पूर्व अथवा उत्तर सन्मुख या चैत्य सन्मुख सुखपूर्वक बैठकर आलोचना को सुने ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy