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________________ श्री संवेगरंगशाला ३१७ जानना । इसमें समस्त पदार्थों को प्रकाश करने में (जानने में ) शरद ऋतु के सूर्य समान है । अतिशयों का भण्डार और इससे तीन जगत से पूजनीय भगवन्त ज्ञान का काल विनय आदि आचार से विरद्ध प्रवृत्ति करने से आत्म सुख में विघ्नभूत होता है, इसमें कोई भी अतिचार लगा हो उसे सम्यग् रूप आलोचना करनी चाहिए । इसी तरह सम्यग् ज्ञान रूपी लक्ष्मी के विस्तान को धारण करने वाले पुरुष सिंह, ज्ञानी पुरुष तथा ज्ञान के आधारभूत पुस्तक, पट, पटड़ी आदि उपकरणों को पैर आदि के संघट्टन द्वारा, निन्दा करने से अथवा अविनय करने द्वारा जो अतिचार लगा हो उसकी भी आलोचना करनी चाहिए । इसी तरह निश्चय ही दर्शनाचार में भी किसी तरह प्रमाद के दोष से शंकाकांक्षा आदि अकरणीय कार्य को करने से तथा प्रशंसा आदि कार्य को नहीं करने से, एवं लोक प्रसिद्ध प्रवचन आदि शासन प्रभावक विशिष्ट पुरुष प्रति उचित व्यवहार नहीं करने से तथा सम्यक्त्व का निमित्त भूत श्री जैन मन्दिर, जैन प्रतिमा आदि की एवं श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, तपस्वी और उत्तम श्रावक, श्राविकाएँ की अति आशातना अथवा अवज्ञा निन्दा आदि करने से जो अतिचार लगा हो वह भी निश्चय आलोचना के योग्य जानना । मूल गुणरूप और उत्तर गुणरूप तथा अष्ट प्रवचन माता रूप चारिताचार में भी जो कोई अतिचार सेवन किया हो उसकी आलोचना करना, उसमें मूल गुण में छह काय जीवों का संघट्टन (स्पर्श) परिताप तथा विविध प्रकार की पीड़ा आदि करने से प्रथम प्राणातियात विरमण व्रत में अतिचार लगता है । इस तरह दूसरे व्रत में भी क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य अथवा भय से तथा विध असत्य वचन बोलने से अतिचार लगता है । मालिक के दिये बिना जो सचित्त, अचित्त या मिश्र द्रव्य का हरण करना वह तीसरे व्रत सम्बन्धी अतिचार लगता है । देव, तिर्यंच या मनुष्य की स्त्रियों के भोग की मन से अभिलाषा करना, वचन से प्रार्थना करना और काया से स्पर्श आदि से लगे हुये चौथे व्रत के अतिचार को आलोचना के योग्य जानना । तथा अन्तिम पाँचवें व्रत में देश, कुल अथवा गृहस्थ में तथा अतिरिक्त - अधिक वस्तु में ममत्व स्वरूप जो अतिचार लगा हो वह भी आलोचना करने योग्य जानना । दिन में लाया हुआ रात में, रात में लाया हुआ दिन में, रात में लाया हुआ रात में और पूर्व दिन में लाया हुआ दूसरे दिन । इस तरह चार प्रकार रात्रि भोजन के अन्दर जो अतिचार सेवन किया हो वह भी सम्यग् रूप से सद्गुरू देव के समीप में आलोचना करने योग्य जानना ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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