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________________ ३०२ श्री संवेगरंगशाला है। इस प्रकार पृच्छा निर्यामक आचार्य को, अन्य गच्छ में से आए हुए तपस्वी साधु को और साधुओं को सभी को गुणकारी होता है। और इस प्रकार नहीं पूछने से परस्पर अप्रीति एवं आहार पानी के अभाव होने पर तपस्वी को भी असमाधि इत्यादि बहुत दोष उत्पन्न होते हैं। इस तरह मोक्ष मार्ग के रथ समान और मृत्यु के साथ युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति करवाने में सफल हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अन्तर द्वार वाला दूसरा गण संक्रमण द्वार में नौवाँ पृच्छा नाम का अन्तर द्वार कहा है। अब विधिपूर्वक पृच्छा करने पर भी उस क्षपक के आश्रित को उसके बाद सम्यक् करने का कर्तव्य सम्बन्धी प्रतिपृच्छा या प्रतीच्छा द्वार को कहता हूँ। ___दसवाँ प्रतीच्छा द्वार :-पूर्व में जो विस्तार से कहा है उसे विधिपूर्वक आये हुए तपस्वी को उत्साह से आचार्य और साधु सर्व आदरपूर्वक स्वीकार करें। केवल यदि उस गच्छ में किसी प्रकार भी एक ही समय में दो तपस्वी आएँ, उसमें जिसने प्रथम से ही संलेखना की हो ऐसी काया हो वह श्री जैन वचन के अनुसार संथारे में रहे हुये शरीर को छोड़े और दूसरा उग्र प्रकार के तप से शरीर की संलेखना करे । परन्तु विधिपूर्वक भी तीसरा तपस्वी आया हो तो उसको निषेध करे, अन्यथा वैयावच्च कारक के अभाव में समाधि का नाश होता है। अथवा किसी तरह उसके योग्य भी श्रेष्ठ वैयावच्च' करने वाले दूसरे अधिक साधु हों तो उनकी अनुमति से उसे भी स्वीकार करना चाहिए। और किसी कारण से यदि वह आहार का त्यागी प्रस्तुत अनशन कार्य को पूर्ण करने में समर्थ न हो, थक जाये और लोगों ने उसे जाना—देखा हो, तो उसके स्थान पर दूसरे संलेखना करने वाले साधु को रखना चाहिए तथा उन दोनों के बीच में सम्यग् रूप परदा रखना। उसके बाद जिन्होंने उसे पूर्व में सुना हो या देखा हो वे वन्दनार्थ आयें तो अल्पमात्र दर्शन कराना चाहिए अन्यथा अश्रद्धा और शासन की निन्दा आदि दोष उत्पन्न होने का कारण बनता है। इस कारण से परदे के बाहर रहे उस साधु को वन्दन करवाना। इस विधि से गण संक्रम करके ममत्व से मुक्त बने धीर आत्मा श्री जैनाज्ञा की आराधना करके दुःख का क्षय करता है। इस तरह श्री जैनचन्द्र सूरि जी रचित एवं मृत्यु के साथ युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति करने में सफल कारणभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अन्तर द्वार वाला दूसरा गण संक्रम द्वार में प्रतीच्छा नाम का दसवाँ अन्तर द्वार कहा है और यह कहने से चार मूल द्वार में परगण संक्रम नाम का यह दूसरा द्वार भी पूर्ण ४८६४ श्लोक से हुआ। ॥ इति श्री संवेगरंगशाला द्वितीय द्वार ॥
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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