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________________ श्री संवेगरंगशाला ३०१ देश से क्या लाभ कि जिससे मुझे आपके चरण-कमल की प्रतिकूलता का कारण बना ? फिर नमस्कार करने वाले के प्रति वात्सल्य वाले उस मुनि ने 'यह भय - भीत बना है' ऐसा जानकर राजा को प्रशान्त मुख से मधुर वचनों द्वारा आश्वासन देकर निर्भय बना दिया । उस समय पर मुनि के प्रभाव से प्रसन्न हुआ जैनदास नामक श्रावक ने राजा से कहा कि - हे देव ! निश्चय इस मुनि का नाम लेने से भी ग्रह, भूत, शाकिनी के दोष शान्त हो जाते हैं और चरणा प्रक्षाल के जल से विषम रोग भी प्रशान्त होते हैं । ऐसा सुनकर राजा ने मुनि के चरण-कमल का प्रक्षालन किया और उसके जल से पुत्र को सिंचन किया, इससे वह शीघ्र ही स्वस्थ शरीर वाला हो गया । उसकी महीमा को स्वयं देखने से धर्म की श्रेष्ठता को निश्चय रूप में राजा ने श्रद्धा को प्राप्त की और साधु के वचन से जैन धर्म को राजा ने स्वीकार किया । उसके बाद सद्धर्म के विरुद्ध बोलने वाला द्वेषी और उत्तम मुनियों का शत्रु उस पुरोहित को नगर में से निकाल दिया एवं राजा अपने सर्व कार्यों को छोड़कर सर्व ऋद्धि द्वारा सर्व प्रकार से आदरपूर्वक क्षपक मुनि का सन्मान करने लगा । इस तरह अनशन में तल्लीन हरिदत्त महामुनि को आए हुये विघ्न को भी अतिशय वाले उस मुनि शीघ्र रोक लिया । अथवा ऐसे अतिशय वाले मुनि भी कितने हो सकते हैं ? इसलिए प्रथम से ही विघ्न का विचार करके अनशन में उद्यम करना चाहिए । इस प्रकार आगम समुद्र के ज्वार या बाढ़ के समान मृत्यु के साथ लड़ते विजय पताका प्राप्त कराने में सफल हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नामक आराधना के दस अन्तर द्वार वाला दूसरा गण संक्रम द्वार में पडिलेहणा नाम का आठवाँ अन्तर द्वार कहा है । अब विघ्नों का विचार करने पर भी जिसके बिना क्षपक मुनि अनशन को करने में समर्थ नहीं होता, उस पृच्छा द्वार को कहते हैं । नौवाँ पृच्छा द्वार : - इसके पश्चात् स्थानिक आचार्य अपने गच्छ के सर्व मुनियों को बुलाकर कहे कि - यह महासात्त्विक तपस्वी तुम्हारी निश्रा में विशुद्ध आराधना की क्रिया को करने की इच्छा रखता है । यदि इस क्षेत्र में तपस्वी को समाधिजनक पानी आदि वस्तुएँ सुलभ हों और तुम इसकी अच्छी तरह सेवा वैयावच्च कर सकते हो तो कहो, कि जिससे इस महानुभाव को स्वीकार करे । उसके बाद यदि वे सहर्ष ऐसा कहें कि - आहारादि वस्तुएँ यहाँ सुलभ हैं और हम भी इस विषय में तैयार हैं, अतः इस साधु को अनुग्रह करो । उस समय तपस्वी को स्वीकार करना चाहिए । इस तरह उसकी इष्ट सिद्धि विघ्न रहित होती है और अल्प भी परस्पर असमाधि नहीं होती
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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