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________________ ॐ अहं नमः ॥ नमोऽस्तु श्री जैन प्रवचनायः ॥ श्री आत्मवल्लभ ललित पूर्णानन्द प्रकाश चन्द सूरि गुरूभ्योः नमः (३) तृतीय द्वार ममत्व विच्छेदन द्वार तीसरे द्वार का मंगलाचरण दव्वे खेत्ते काले, भावाम्मि य सत्वह्यधुयममत्तो । भयवं भवं तयारी निरंऽजणो जयइ वीरजिणो ॥ ४८६७ ॥ सर्व द्रव्यों में, क्षेत्र में, काल में और भाव में सर्वथा ममत्व के त्यागी, संसार का अन्त करने वाले और राग रहित निरंजन भगवन्त श्री महावीर परमात्मा विजयी हैं । जिस कारण से आत्मा का परिकर्म करने पर भी और परगण में संक्रमण करने पर भी ममत्व के विच्छेद नहीं करने वाले की आराधना नहीं होती है, इस कारण से गण संक्रमण को कहकर अब ममत्व विच्छेद के अधिकार को कहता हूँ । इसमें अनुक्रम से नौ अन्तर द्वार हैं। वह इस प्रकार हैं- (१) आलोचना करना, (२) शय्या, (३) संथारा, (४) निर्यापकता, (५) दर्शन, (६) हानि, (७) पच्चक्खान, (८) क्षमापना और (8) क्षामणा । इन्हें अनुक्रम से कहते हैं । , प्रथम आलोचना विधान द्वार : - जिस कारण से गुरूदेव ने स्वीकार किया हो, परन्तु तपस्वी आलोचना के बिना शुद्धि को नहीं प्राप्त कर सकता है, इसलिए अब आलोचना विधान द्वार को कहता हूँ । गुरू महाराज विधिपूर्वक मधुर भाषा से सर्व गण समक्ष तपस्वी को कहे कि - हे महायश ! तूने शरीर की सम्यक् संलेखना की है, तूने श्रमण जीवन स्वीकार किया है, उन सर्व कर्त्तव्यों में तू रक्त है, शीलगुण की खान, गुरू वर्ग की चरण सेवा में सम्यक् तत्पर है, और निष्पुण्यक को दुर्लभ उत्तम श्रमण पदवी को तूने सम्यक् रूप से प्राप्त किया है, इसलिए अब अहंकार और ममकार को विशेषतया त्यागी बनकर तू अति दुर्जय भी इन्द्रिय, कषाय, गारब और परीषह रूपी मोह
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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