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________________ ... श्री संवेगरंगशाला उस योग का निरोध प्रशस्त ग्रन्थों के अर्थ का चिन्तन करने से, उसकी रचना करने से, सम्यग् कार्य का आरम्भ करने से होता है, अन्यथा नहीं होता है। क्योंकि उन ग्रन्थों का अर्थ चिन्तन करने से मन का निरोध है, उस ग्रन्थ को बोलने से वचन निरोध है और उस ग्रन्थ को लिखना आदि क्रिया करने से काया का निरोध है। इन कार्यों में सम्यग् प्रकार से जोड़ना वह असद् व्यापार से रोका जा सकता है। इस तरह कर्म बंधन में एक प्रबल कारण योगों के प्रचार को रोकने वाले महात्मा ही हैं अथवा मेरी आत्मा को है । योग निरोध से लाभ कहते हैं : योग निरोध का फलः-इस तरह योग निरोध होने से प्रथम उपकार प्रस्तुत ग्रन्थ का सर्जन होता है और दूसरा उपकार संवेग का वर्णन करते हुए स्थान-स्थान पर प्रशम सुख का लाभ होता है। संवेग की महिमा :- स्वप्न में भी दुर्लभ संवेग के साथ निर्वेद आदि परमार्थ तत्वों का जिसमें विस्तार हो वही शास्त्र श्रेष्ठ कहलाता है । जिस शास्त्र में अनादि पूर्व जन्म के अभ्यास से स्वयं सिद्ध और बाल-बच्चे, स्त्री आदि सब कोई सरलता से जान सकें ऐसे काम और अर्थ की प्राप्ति तथा राजनीति के उपाय अनेक प्रकार से कथन करने वाले शास्त्र को मैं निरर्थक समझता हूँ। इस कारण से संवेगादि आत्महितार्थ के प्ररूपक इस शास्त्र के श्रवण और चिन्तन आदि करने में बुद्धिजीवों को हमेशा प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि संवेग गर्भित अति प्रशस्त शास्त्र का श्रवण धन्य पुरुष को ही मिलता है, और श्रवण करने के बाद भी वह समरस (समता) की प्राप्ति तो अति धन्य पुरुष को ही होती है । और भी कहा है कि पानी से भरा हुआ मिट्टी का कच्चा घड़ा जैसे गीला होकर भेदन होता है जैसे-जैसे संवेग रस का वर्णन किया जाए, वैसे-वैसे भव्यात्माओं का भेदन होता है। और लम्बे काल तक संयम पालन करने का सार भी संवेग रस की प्राप्ति है क्योंकि बाण उसे कहते हैं जो लक्ष्य को भेदन करे, वैसे आराधना उसे कहते हैं कि जिससे संवेग प्रगट हो । दीर्घकाल तक तप किया हो, चरित्र का पालन किया हो और बहुत श्रुतज्ञान का भी अभ्यास किया हो फिर भी यदि संवेगरस न प्रगट हुआ हो तो वह सर्व छिलकों को कूटने के समान निष्फल जानना । जिसके हृदय के अन्दर समग्र दिन में एक क्षण भी संवेगरस प्रकट न हो तो उस निष्फल बाह्य क्रिया के कष्ट का क्या फल मिलने वाला है ? पाक्षिक में, महीने में, छह महीने में, या वर्ष के अन्त में भी जिसको संवेगरस नहीं प्रकट हुआ उस आत्मा को दुर्भव्य अथवा अभव्य जानना। जैसे शरीर के सौन्दर्य में चक्षु है, पति-पत्नी, माता-पुत्र,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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