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________________ श्री संवेगरंगशाला गुरु-शिष्य आदि युगल रूप जोड़े में परस्पर हित बुद्धि है, और भोजन में नमक सारभूत है वैसे परलोक के विधान (हित) में संवेगरस का स्पर्श करना सारभूत है। संवेग के अनुभवी ज्ञाताओं ने भव (संसार) का अत्यन्त भय लगे अथवा मोक्ष की जीव अभिलाषा को संवेग कहा है। ग्रन्थ रचना का हेतु और उसकी महिमा इसलिए केवल संवेग की वृद्धि के लिए ही नहीं परन्तु कर्मरूपी रोग से दुःखी होते भव्य जीवों को और मेरी आत्मा को भी नीरोगी बनाने के लिए, लम्बे समय से सुने हुए गुरुदेव रूपी वैद्य के उपदेश में से वचनरूपी द्रव्यों को एकत्रित करके भाव आरोग्यता के हेतुभूत यह अजरामर करने वाला आराधना रूपी, रसायण शास्त्र बनाने का मैंने आरम्भ किया है । यह आराधना-संवेगरंगशाला रूपी चन्द्र के किरणों के नीचे रहे हुए दिव्य ज्ञान कान्ति वाले आराधक जीवरूपी चन्द्रकान्त मणि में से पापरूपी पानी प्रतिक्षण झरता है अर्थात् इस संवेगरंगशाला में कही गई आराधना करने से पापों का प्रतिक्षण नाश होता है। जैसे कतक फल का चूर्ण जल को निर्मल करता है वैसे जिसका रहस्य संवेग है उस संवेगरंगशाला को पढ़ने वाले, श्रवण करने वाले और उसके अनुसार आराधना करने के कलुषित मन को निर्मल और शान्त करता है। अब इस ग्रन्थ को वेश्या की और उसके साधु को विलासी की उपमा दी है। इस कारण से इसके पदों में अलंकार का लालित्य है, वेश्या के चरण में अलंकार होते हैं, सरल, कोमल और सुन्दर हाथ से सुशोभित अखण्ड शरीर के लक्षणों से श्रेष्ठ होती है, उत्तम सुवर्ण और रत्नों के अलंकारों से उज्वल शरीर वाली, कान को प्रिय लगे ऐसी भाषा बोलने वाली, विविध आभूषणों से भूषित शरीर वाली, अप्रशान्त रस-उन्माद वाली, अन्य लोगों को विषय सुख देने वाली है, बहुत मान हाव-भाव द्वारा परपुरुष को काम का आनन्द दिलाने वाली, मिथ्या आग्रह बिना की, कभी भी उसने धन को बहुत नहीं मानने वाली-असंतोषी, बहत व्यक्ति के पास से अर्थ को प्राप्त करने वाली, जन्म से लेकर कामना के विविध आसन अथवा नृत्य सम्बन्धीकरण के अभ्यास वाली होती है। ऐसी महावेश्या के समान आराधना विधि रूप संवेगरंगशाला है। यह संवेगरंगशाला पदों से अलंकृत है जो सरल, कोमल और शुभ अर्थ से शोभित है, अखण्ड काव्य के लक्षणों से श्रेष्ठ है, जिसके अन्दर सुन्दर शब्दों रूपी से उज्ज्वल देदीप्यमान स्वरूप होने से उज्ज्वल आकृति वाला, श्रोता के कान को सुख देने वाला, कल्याणकारी शब्दों से
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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