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________________ श्री संवेगरंगशाला सम्पूर्ण क्षय से होता है, और यह कर्मक्षय भी विशुद्ध आराधना करने से होता है, इसलिए हितार्थी भव्य जीवों को हमेशा उस धर्म की आराधना में उद्यम करना चाहिए क्योंकि उपाय बिना उपेय की सिद्धि नहीं होती है। इस प्रकार की आराधना करने की इच्छा वाला भी यदि उस आराधना का स्वरूप कथन करने वाले समर्थ शास्त्रों को छोड़कर, वैसा कितना भी उद्यम करे फिर भी सम्यग् आराधना को नहीं जान सकता है। इसलिए मैं तुच्छ बुद्धि वाला होते हुए भी, गुरु भगवन्त की परम कृपा से और शास्त्रों का आलम्बन के द्वारा गृहस्थ और साधु उभय सम्बन्धी अति प्रशस्त महाअर्थ मोक्ष और उसका हेतु से युक्त आराधना शास्त्र कहूँगा । अब आराधक के उद्देश्य को कहते हैं : धर्म के अधिकारी :-आराधना की इच्छा करने वाले को प्रथम से ही तीन योगों को रोकना चाहिए । क्योंकि बेकाबू मन, वचन, काया ये तीनों योग सर्व अशुभ-असुख का सर्जक हैं। इसी निरंकुश तीनों योग के द्वारा आत्मा मलीन होती है । वह इस प्रकार से : असमंजस अर्थात अन्याय रूपी निरंकुशता, विविध विषय रूपी अरण्य में परिभ्रमण करते अरति, रति और कुमति आदि हाथियों तथा कषायरूपी अपने बच्चों आदि महासमूह के साथ तथा अनेक गुणरूप वृक्षों को नाश करने वाला प्रमाद रूपी मद से मदोन्मत्त बना हुआ यह मन रूपी हाथी स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार की कर्मरूपी रज द्वारा आत्मा को मलिन करता है। असती वाणी के उपमा का वर्णन-निरर्थक बोलती प्रतिक्षण अलग-अलग शब्दों को धारण करती और विलास-सुनने वालों का मनोरंजन करती वाणी(वचन) भी असती के समान स्वार्थ निरपेक्ष प्रवृत्ति वाली क्षण-क्षण में शब्द रूपी रंग को बदलने वाली अनर्थ को करने वाली है। __ अब काया के विषय में कहते हैं-आत्मा का अन्याय-अहित करने वाली, पापकारी प्रवृत्ति-व्यापार वाली, सर्वविषय में सभी प्रकार से अंकुश बिना रहने वाली, और तपे हुए लोहे के गोले के समान जहाँ स्पर्श करेगी वहीं जलाने वाला, ऐसे सर्वत्र हिंसादि करने वाली यह काया भी कल्याणकारी नहीं है। इन तीनों में निरंकुश एक भी योग इस लोक और परलोक के दुःख का बीज रूप है, तो वे तीनों जब साथ में मिल जाएँ तब क्या नहीं करते ? अर्थात् महाअनर्थ करते हैं। इसलिए उन योगों के निरोध का प्रयत्न करना चाहिए। वह योग निरोध किस तरह होता है ? उसे कहते हैं :
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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