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________________ श्री संवेगरंगशाला २३७ मूल प्रथम परिकर्म विधि द्वारा प्रस्तुत पन्दह प्रति द्वारों के क्रमानुसार श्रेणी सम्बन्धी यह तेरहवाँ अन्तर द्वार कहा है । अब श्रेणी में चढ़ा हुआ भी भाव के बिना स्थिर नहीं हो सकता है। इसलिए भाव द्वार को सविस्तारार्थ कहता हूँ। ___ चौदहवाँ भावना द्वार :-इससे जीव भावना वाला बनता है, इस कारण से इसे भावना कहते हैं। यह भावना अप्रशस्त और प्रशस्त दो प्रकार की होती हैं। उसमें-(१) कन्दर्प, (२) देव किल्विष, (३) आभियोगिक, (४) आसुरी, और (५) संमोह । यह पाँच प्रकार की भावना निश्चय अप्रशस्त है। उसमें अर्थात् अप्रशस्त भावनाओं में अपने हास्यादि अनेक प्रकार से जिसमें भावना हो वह कन्दर्प भावना जानें । कन्दर्प द्वारा, कौत्कुच्य से, द्रुतशीलपने से, हास्य करने से और दूसरे को विस्मय बात करने से । इस तरह पाँच भेद होते हैं । उसमें बड़ी आवाज से हँसना, दूसरों को हँसाना, गुप्त शब्द कहना, तथा काम वांचना की बात करनी, काम वांचना का उपदेश, और उसकी प्रशंसा करनी। इस तरह प्रथम कन्दर्प के अनेक भेद जानना। १. कौत्कुच्य :-अर्थात् पुनः उसी तरह कि जिसमें स्वयं नहीं हँसता, परन्तु विविध चेष्टाओं वाला अपनी आँखें, भकूटी आदि अवयवों से दूसरे को हँसाना। दूतशीलत्व-अर्थात निश्चित रूप अहंकार से चलना, अहंकार से बोलना इत्यादि तथा सर्व कार्यों में अति ही शीघ्रता करना । हास्य क्रियाअर्थात् विचित्र वेश धारण द्वारा, अथवा विकारी वचनों से या मुख्य द्वार स्वपर को हँसाना। और विस्मयकरण-अर्थात् स्वयं लेशमात्र भी विस्मय प्राप्त किए बिना इन्द्रजाल चमत्कारी मन्त्र तन्त्रादि से अथवा वक्र वचन आदि द्वारा अन्य को आश्चर्य प्रगट करवाना। इस तरह कन्दर्प भावना कहा है। अब दुष्ट हलके देवत्व को प्राप्त करने वाली पाँच प्रकार की दूसरी किल्विषिक भावना कहते हैं। २. किल्विषिक भावना :-इसके भी पाँच भेद हैं-(१) श्रतज्ञान की अवज्ञा, (२) केवलि भगवन्त की अवज्ञा, (३) धर्मोचार्य, (४) सर्व साधुओं की अवर्णवाद बोलना तथा (५) गाढ़ माया करना। इसमें जीव, व्रत, प्रमाद आदि के जो भाव एक ग्रन्थ में कहे हैं वही भाव दूसरे ग्रन्थों में भी बार-बार कहा है इत्यादि से अपमान करना वह प्रथम श्रुतज्ञान की अवज्ञा है। यदि वे सच्चे वीतराग हैं तो पक्षपात युक्त केवल भव्य जीवों को ही क्यों धर्म का उपदेश देते हैं ? इस तरह उनकी निन्दा करना वह दूसरी केवलि अवज्ञा है। धर्म, आचार्य की जाति, कुल, ज्ञान आदि की निन्दा करना वह तीसरी धर्माचार्य की
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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