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________________ २३८ श्री संवेगरंगशाला अवज्ञा है। साधु को एक क्षेत्र में प्रेम-प्रसन्नता नहीं रहती, इसलिए अनेक गाँव में घूमते रहते हैं इत्यादि नाना प्रकार के शब्द बोलना चौथी सर्व साधु की निन्दा है और अपने हृदय के भाव को छुपाना इत्यादि कपट प्रवृत्ति करने से होता है वह पाँचवीं गाढ़ माया जानना । इस तरह पाँच प्रकार की दूसरी किल्विषिक भावना कहा है। ३. आभियोगिक भावना :-गारव में आसक्ति वाला जो वशीकरण उस मन्त्रादि से अपने को वासित करता है वह आभियोगिक भावना जानना। वह भावना-(१) कौतुक, (२) भूतिकर्म, (३) प्रश्न, (४) प्रश्नाप्रश्न और निमित्त कहने से पाँच प्रकार का होता है। इसमें अग्नि के अन्दर होम करना, औषध आदि द्वारा अन्य को वश करके जो भोजन आदि प्राप्त करना वह प्रथम कौतुक आजीविका है । और जो भूतिकर्म-रक्षा सूत्र अर्थात् रक्षा-बन्धन आदि से दूसरों की रक्षा करके आहार आदि को प्राप्त करना वह दूसरा भूमिकर्म आजीविका कहलाता है। अंगूठे आदि में देव को उतारकर, उसे पूछकर दूसरे के प्रश्न का निर्णय देकर भोजनादि की प्राप्ति करना उसे ज्ञानियों का तीसरा प्रश्न आजीविका कहा है। स्वप्न विद्या, घण्टा कर्ण पिशाचि की विद्या अथवा ऐसी किसी विद्या द्वारा परके अर्थ का निर्णय करके आजीविका चलानी, उसे महामुनियों ने चौथा प्रश्नाप्रश्न आजीविका कही है। निमित्त शास्त्र द्वारा दूसरों का लाभ-हानि आदि बताना, उसके द्वारा जो आहार आदि प्राप्त करना उसे गुरूदेवों ने निमित्त आजीविका कहा है। इस तरह आभियोगिक भावना का वर्णन किया। अब असुर निकाय देव की सम्पत्ति देने वाली का वर्णन करते हैं। ४. आसुरिक भावना :-यह पाँच प्रकार की है-(१) बार-बार झगड़ा वापन, (२) संसक्त तप, (३) निमित्त कथान, (४) क्रूरता, और(५) निरनुकंपायन । इसमें हमेशा लड़ाई-झगड़े करने में प्रीति रखना उसे प्रथम झगड़ा वापन कहते हैं और आहारादि प्राप्त करने के लिए तप करना वह दूसरा संसक्त तप जानना । अभिमान से अथवा द्वेष से साधु ने गृहस्थ को जो भूत-भावि आदि के भाव बतलाने-तेजी-मन्दी कहना वह तीसरा निमित्त कथन है। पुष्ट शरीर वाला समर्थ भी पश्चाताप बिना-निर्वस भाव से त्रसादि जीवों के ऊपर चलना, उस पर बैठना, खड़े रहना, सोना आदि करना वह चौथो निष्कृपा भाव (कठोरता) कहा है । और दुःख से पीड़ित तथा भय से अति कांपते हुए देखकर भी जो निष्ठुर हृदय वाला है उसे पांचवाँ निरनुकम्पात्व कहते हैं ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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