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________________ २३६ श्री संवेगरंगशाला साथ में विहार करके, अन्त में आयुष्य को अल्प जानकर भक्त परिक्षा अनशन स्वीकार करते उसे गुरू ने समझाया कि-हे महाभाग ! अन्तकाल की यह सविशेष आराधना बहुत पुण्य' से मिलती है। इसलिए स्वजन उपधि, कुल, गच्छ में और अपने शरीर में भी राग को नहीं करना, क्योंकि यह राग अनर्थों का मूल है । तब "इच्छामो अणुसद्वि" अर्थात् आपकी शिक्षा को मैं चाहता हूँ।' ऐसा कहकर गुरू की वाणी में दृढ़ रति वाला स्वयंभूदत्त ने अनशन को स्वीकार किया। और उसके पुण्योदय से आकर्षित होकर नगर जन उसकी पूजा करने करने। इधर पूर्व में अलग पड़ा हुआ वह सुगुप्त नाम का उसका छोटा भाई परिभ्रमण करता हुआ उस स्थान पर पहुँचा, और नगर के लोगों को मुनि के वन्दन के लिये एक दिशा की ओर जाते देखकर उसने पूछा कि-ये सभी लोग वहां क्यों जा रहे हैं ? एक मनुष्य ने उससे कहा कि-यहाँ प्रत्यक्ष सद्धर्म का भण्डार रूप एक महामुनि अनशन कर रहे हैं, इसलिए तीर्थ के सदृश उनको वन्दनार्थ ये लोग जा रहे हैं । ऐसा सुनकर कुतूहल से सुगुप्त भी लोगों के साथ मैं स्वयंभूदत्त साधु को देखने के लिए उस स्थान पर पहुँचा। फिर मुनि के रूप में भाई को देखकर वह बड़े जोर से रोता हुआ कहने लगा कि-हे भाई ! हे स्वजन वत्सल ! कपटी साधुओं से तू किस तरह ठगा गया ? कि अतिकृश शरीर वाला, तूने ऐसी दशा प्राप्त की है। अब भी शीघ्र इस पाखण्ड को छोड़ कर अपने देश जायेंगे। तेरे वियोग से निश्चय मेरा हृदय अभी ही फट जायेगा । उसने ऐसा कहा । तब स्वयंभूदत्त ने भी कुछ राग से उसे पास बुलाकर पूर्व का सारा वृत्तान्त पूछा । और दुःख से पीड़ित उसने भी शोक से भाग्य फूटे शब्द वाली वाणी से 'भिल्लों का धावा से अलग हुआ' इत्यादि अपना वृत्तान्त कहा। फिर ऐसे करुण शब्दों के सुनने से स्नेह राग प्रगट होने से कलुषित ध्यान वाला स्वयंभूदत्त स्वार्थ सिद्धि की प्राप्ति के योग अध्यवसाय होते हूये उसे छोड़कर भाई के प्रति स्नेहरूपी दोष से मरकर सौधर्म देवलोक मध्यम् आयुष्य वाला देव हुआ। इस तरह भावश्रेणी में जो योग व्यापार बाधक हो उसे आराधना के अभिलाषी यत्नपूर्वक करें, इससे ही प्रयत्नपूर्वक आराधना रूपी ऊँचे महल की भाव सीढ़ी पर चढ़ने वाले को आचार्य के साथ ही आलाप संलाप करे, मिथ्या दृष्टि लोग से मौन रहे इत्यादि यथा करना चाहिए। इससे अनशन को करने वाला सर्व सुखशीलता का त्याग करके, और भावश्रेणी में आरोहण करके राग मुक्त होकर रहना चाहिए। इस तरह कामरूपी सर्प को नाश करने में गरूड़ की उपमा वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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