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________________ २१८ श्री संवेगरंगशाला के क्षय को देखकर दोनों राजाओं ने लड़ना बन्द कर दिया, उसके बाद गीदड़, सियार आदि उस मुर्दे को भक्षण करने लगे, तब साधु ने विचार किया किमरने का और कोई उपाय नहीं है, इसलिए रणभूमि में रहकर गृध्रपृष्ठ मरण को स्वीकार करूं। ऐसा निर्णय करके जब वह पापिनी कन्द-फल आदि लेने के लिये वहाँ से गई, तब सब करने योग्य अनशन आदि करके वह महात्मा धीरेधीरे जाकर उन मुर्दो के बीच में मुरदे के समान गिरा और और दुष्ट हिंसक प्राणियों ने उनका भक्षण किया। इस तरह अत्यन्त समाधि के कारण मरकर वह जयन्त विमान में देवरूप उत्पन्न हुआ, इस तरह उसने गृध्रपृष्ठ मरण की सम्यग् प्रकार से आराधना की। इस तरह तीन जगत से पूजनीय श्री जैनेश्वर भगवान ने निश्चय गाढ़ कारण से वेहायस और गृध्रपृष्ठ मरणों की भी आज्ञा दी है। घातक ने राजा को मारने से साधुवेष धारी आचार्य शासन का कलंक रोकने के लिए शस्त्र ग्रहण किया था और अपने आप मरे थे । उसका भी दृष्टांत इस प्रकार है : उदायी राजा को मारने वाले की कथा पाटलीपुत्र नगर में अत्यन्त प्रचण्ड आज्ञा वाले जिसको सामन्त समूह नमस्कार करता था ऐसा जगत् प्रसिद्ध उदायी नाम से राजा था। उसने केवल अल्प अपराध में भी एक राजा का समग्र राज्य ले लिया था। इससे वह राजा जल्दी वहाँ से भाग गया फिर उसका एक पुत्र घूमता हुआ उज्जैनी नगरी में गया और प्रयत्नपूर्वक उज्जैनी के राजा की सेवा करने लगा। उस उज्जैनी के राजा को अनेक बार उदायी राजा को शाप देखा । देखकर उस राजपुत्र ने नमस्कार करके एकान्त में उन्हें विनम्र निवेदन किया-हे देव ! यदि आप मेरे सहायक बने तो मैं आपके शत्रु को मार दूं। राजा ने वह बात स्वीकार की और उसे महान आजीवन साधना कर दिया। इससे कंकजाति के, लोह की कटार लेकर, उसे अच्छी तरह छुपाकर उस उदायी राजा को मारने गया। मारने का कोई मौका नहीं मिलने से, अष्टमी, चतुर्दशी के दिन पौषध करते उदायी राजा को रात्री में धर्म सुनाने के लिए सूरिजी को राजमहल में जाते देखकर उसने विचार किया कि--मैं इन साधुओं का शिष्य होकर उनके साथ राजमहल में जाकर शीघ्र इष्ट प्रयोजन को सिद्ध करूं । फिर कंक की कटारी को छुपाकर उसने दीक्षा स्वीकार की, और अत्यन्त विनयाचार से आचार्य श्री को अत्यन्त प्रसन्न किया। एक समय रात्री में पौषध वाले राजा को धर्म कथा : सुनाने के लिये आचार्य श्री को जाते देखकर अति विनय भाव से गुप्तरूप
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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