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________________ श्री संवेगरंगशाला २१६ शीघ्र कटारी लेकर आचार्य श्री का संथारा आदि उपधि को हाथ में उठाकर आचार्य के साथ में राजमन्दिर में जाने के लिए चला । और "चिर दीक्षित है, संयम का अनुरागी है तथा अच्छी तरह परीक्षित हुआ है।" ऐसा मानकर आचार्य श्री ने उसे नहीं रोका। इस तरह वे दोनों राजमहल में गये, और उसके बाद राजा को पौषध उच्चारण करवाकर दीर्घकाल तक धर्मकथा कहकर रात्री में आचार्य श्री सो गये। उनके समीप में ही राजा भी शीघ्र सो गया। फिर उनको गाढ़ नोंद में सोये हये जानकर वह दृष्ट शिष्य राजा के गले में उस कटारी से मारकर वहाँ से चल दिया। पहरेदार ने 'यह साधु है' ऐसा मानकर उसे जाते नहीं रोका। फिर कंक छुरी से छेदित हुए राजा के गले में से निकलते रक्त के अति प्रवाह से भिगे शरीर वाले आचार्य श्री जी शीघ्र जागृत हुये और राजा को मरे हुये देखकर विचार किया कि-निश्चित ही उस कुशिष्य का यह कर्म है। इससे यदि मैं अब प्राणों का त्याग नहीं करूंगा तो सर्वत्र जैन शासन की निन्दा होगी और धर्म का विनाश होगा। ऐसा चिन्तन मनन कर अनशन आदि सर्व अन्तिम विधि करके उत्सर्ग-अपवाद विधि में कुशल उस आचार्य श्री ने उसी कटारी को अपने गले में चुभाकर काल धर्म प्राप्त किया। इस तरह आगाढ़ कारणों के कारण शस्त्र, फाँसी आदि प्रयोगों से भी मरना, उसे निर्दोष कहा है। अब पन्द्रहवाँ भक्त परिक्षा मरण कहते हैं। १५. भक्त परिक्षा मरण द्वार :-इस संसार में पूर्व के अन्दर अनेक बार अनेक प्रकार का भोजन खाया, फिर भी उससे जीव को वास्तविक तृप्ति नहीं होती है, नहीं तो पूनः भी कदापि सूना न हो, वैसे ही कभी भी देखा न हो, वैसे ही कदापि खाया न हो, वैसे ही प्रथम ही बार अमृत मिला हो। इस प्रकार प्रतिदिन उसका अति सन्मान कैसे करता ? अशचित्व आदि अनेक प्रकार के विकार को प्राप्त करने के स्वभाव वाला है। उसका चिन्तन मात्र से भी पाप का कारण बनता है, ऐसे भोजन करने से अब मुझे क्या प्रयोजन है ? ऐसे भगवन्त के वचन के द्वारा ज्ञान होने से योग्य विषयों का हेय रूप ज्ञान और इससे उसी तरह पच्यक्खान द्वारा चार प्रकार के सर्व आहार, पानी का, बाह्य वस्त्र पात्राधि उपधि का तथा अभ्यन्तर रागादि उपधि का, इन सबका जावज्जीव तक त्याग करना, इत्यादि जो इस भव में तीनों आहार अथवा चारों आहार का जावज्जीव सम्यक् परित्याग करने रूप प्रत्याख्यान -नियम वह भक्त परिक्षा है और उसको स्वीकार पूर्वक मरना वह पन्द्रहवाँ भक्त परिक्षा मरण कहलाता है । उस भक्त परिक्षा अवश्य सप्रतिकर्म है, अर्थात् इसमें शरीर की सेवा सुश्रुषादि कर सकते हैं। इस भक्त परिक्षा मरण के
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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