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________________ श्री संवेग रंगशाला २१७ विनयपूर्वक चरणों में नमस्कार कर उसने कहा कि - हे प्राणनाथ ! इस दुष्कर तपस्या से रुक जाओ और अब चारित्र को छोड़ दो, हे सुभग! मैंने जिस दिन आपकी दीक्षा की बात सुनी उसी दिन मुझे वज्र के प्रहार से भी अधिक दुःख हुआ, और आपके वियोग से 'जीवन को आज त्यागूं, कल छोडूं' ऐसा विचार करती केवल आपके दर्शन की आशा से इतने दिन जीती रही । अब तो जीवन अथवा मृत्यु निःसन्देह आपके साथ ही होगा, तो हे प्राणनाथ ! जो आपको रूचिकर हो उसे करो ! उसके ऐसा कहने से पूर्व में जो गुरूदेव ने वचन कहा था वह याद आया और ऐसा धर्म विघ्न आया कि वह किसी भी उपाय से नहीं शान्त होने वाला जानकर, मोक्ष के एक बद्ध लक्ष्य वाला, अपने जीवन के लिये अत्यन्त निरपेक्ष उस साधु ने कहा कि - हे भद्रे ! जब तक मैं अपना कुछ कार्य करूँ तब तक एक क्षण तू घर बाहर खड़ी रहो, फिर 'जो आपको हितकर और भविष्य में सुखकर हो' उसे मैं करूँगी । ऐसा कहकर प्रसन्न मुख वाली, अत्यन्त कपट रूप, दुराचार वाली, उसने उसके आदेश हत्तिपूर्वक स्वीकार करके घर के दरवाजे बन्द करके बाहर खड़ी रही । और श्रेष्ठ धर्म ध्यान में प्रवृत्ति करने वाले साधु भी अनशन स्वीकार कर वेहायस मरण - अर्थात् गले में फाँसा लगाकर, ऊँचे लटककर विधिपूर्वक मरकर अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए। इसके बाद सारे नगर में बात फैल गई कि 'इसने साधुओं को मार दिया है।' इससे पिता ने शीघ्र अपमानित करके अपने घर में से उसे निकाल दिया । अत्यन्त स्नेह के कारण उसकी विजयश्री भी उसके साथ निकली, और प्रसूति दोष के कारण सोमश्री मार्ग में ही मर गई । फिर विजयश्री ने तापसी दीक्षा की स्वीकार किया और निरंकुशता, कन्दमूल, आदि का भोजन करती तापसों के एक आश्रम में रहती थी । एक समय पूर्व मुनिवर के छोटे भाई वह सोमदत्त नाम के साधु विहार करते, वहाँ आये और विहार में तीक्ष्ण काँटे उनके पैरों में लगे, इससे चलने में असमर्थ वहाँ किसी एक प्रदेश में बैठे। उस समय विजय श्री ने उन्हें देख लिया और पहचान गई । इससे कामाग्नि से ज्वज्ल्य मान हृदय वाली वह विविध प्रकार से उसे क्षोभित करने लगी । इस तरह प्रतिक्षण उस पापिनी से क्षोभित होते हुए उन्हें गुरूदेव के वचनों का स्मरण आया, परन्तु वहाँ से आगे बढ़ने में वह मुनि असमर्थ थे । अक : ' किस तरह अपने प्राणों का त्याग करूँ ?' ऐसा चिन्तन कर रहे थे । तब उस प्रदेश में, उस समय पर परस्पर अतीव्र विरोधि दो राजाओं ने देखा और देखने मात्र से भयंकर युद्ध हुआ । उसमें अनेक सुभट, हाथी और घोड़े मरे । रुधिर का प्रवाह बढ़ने लगा । इससे स्वपक्ष और परपक्ष I
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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