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________________ श्री संवेगरंगशाला २०६ क्योंकि-पश्चाताप से पीड़ित, धर्म की प्रीति वाला, दोषों को दूर करने की इच्छा वाला पासस्था आदि दुःशील भी उस विशिष्ट आराधना के लिए योग्य है। मेरी तो वह करणीय है ही। और शरीर बल हमेशा क्षीण हो रहा है, पुरुषार्थ और वाणी शक्ति भी नित्य विनाश हो रही है तथा वीर्य-सामर्थ्य भी हमेशा नाश हो रहा है, कान की शक्ति सदैव कम हो रही है, नेत्र का तेज सदा खत्म हो रहा है, बुद्धि नित्य घट रही है और आयुष्य भी हमेशा खत्म हो रही है। अतः जब तक बल विद्यमान है, वीर्य विद्यमान है, पुरुषकार विद्यमान है और पराक्रम विद्यमान है, जब तक इन समग्र इन्द्रियों की शक्ति से क्षीण नहीं होती और जब तक द्रव्य, क्षेत्रादि सामग्री अनुकूल है, तब तक जैन कल्प आदि कुछ भी उग्र मुनिचर्या का आचरण करूँ, अथवा विशिष्ट संघयण के विषय यह चर्या हमारे योग्य नहीं है, इसलिए वर्तमान काल के साधुओं के संघयण के अनुरूप विशिष्ट कर्तव्य का मैं विधिपूर्वक स्वीकार करूँ, क्योंकिदुर्लभ मनुष्य जन्म का फल यही है । इस तरह केवल सामान्य मुनि के समान ही नहीं, परन्तु मुनियों में वृषभ भी मुनि अपनी अवस्था के अनुरूप धर्म जागरण का मनोरथ पूर्ण करता हूँ, जैसे कि मैंने अति दीर्घ दीक्षा पर्याय पालन किया, वाचना भी दी, शिष्यों को तैयार किया, ज्ञान क्रियाशील बनाये और उनके उचित मेरा कर्तव्य का पालन भी किया। इस तरह मेरी भूमिका के उचित जो भी कार्य था, वह क्रमानुसार किया है । अब मुझे कुछ भी उसे विशेषतया करना । अत्यन्त दुष्ट पराक्रम वाला, प्रमादरूप शत्रु सैन्य की पराधीनता से पूज्यों के प्रति मेरे करने योग्य कार्य नहीं किया और नहीं करने योग कार्य को किया । इन सबको छोड़कर अब दीर्घकाल तक चरण-करण गुणों को पालने वाला और दीर्घकाल श्री जैनेन्द्र धर्म की प्ररूपणा करने वाला मुझे अब विशेषतया आत्महित को करना है, वही कल्याणकारी है। किन्तु श्री जैन आगम के रहस्यों के जानकार और प्रशमादि गुण समूह से अलंकृत शिष्य को मेरा सरिषद स्थापन कर और साधु-साध्वी समुदाय को सम्यग् उसकी निश्रा में स्थापित कर, सामर्थ्य और आयुष्य विद्यमान रहते हुए आत्मा के बल और वीर्य को छिपाये बिना मैं यथाछन्द चारित्र का परिहार विशुद्धि चारित्र को अथवा जैनकल्प को स्वीकार करूँगा, अथवा तो पादयोपगमन, इंगिनी या भक्त परिक्षा आदि कोई अनशन करने का स्वीकार करता है। इस प्रकार चिन्तन करके और प्रयत्नपूर्वक उसका प्राथमिक अभ्यास करके शेष महान आराधना की यदि आशक्ति हो, तो भक्त परिक्षा का निर्णय करे। इस तरह सम्यक्त्व की प्राणदात्री तुल्य और मोक्ष नगर के मुसाफिरों के वाहन सदृश संवेगरंगशाला
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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