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________________ २१० श्री संवेगरंगशाला नाम की आराधना के प्रथम परिकर्म द्वार के दो प्रकार के परिणाम नामक नौवाँ प्रतिद्वार में साधु परिणाम नाम को यह दूसरा प्रकार का भी कहा है और उसे कहने से मूल परिकर्म विधिद्वार का दो भेद वाला यह नौवाँ परिणाम नाम का अन्तर द्वार पूर्ण हुआ। दसवाँ त्याग द्वार :-इस तरह शभ परिणाम से युक्त भी प्रस्तुत आराधक जीव विशिष्ट त्याग बिना आराधना की साधना में समर्थ नहीं हो सकता है, इसलिए अब त्याग द्वार कहते हैं । वह त्याग द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कारण चार प्रकार का जानना। उसमें जो पूर्व में कहा था उसके अनुसार गृहस्थ आराधना को प्रारम्भ करते ही पुत्र को धन सौंप कर द्रव्य' का त्याग किया जाता है। फिर भी विशिष्ट आराधना करते समय अब शरीर परिवार, उपाधि आदि अन्य भी बहुत द्रव्यों में राग नहीं करने रूप विशेषतया त्याग करना चाहिये । तथा क्षेत्र से भी यदि पहले नगर, गाँव, घर आदि का त्याग किया हो, फिर भी इस समय पर इष्ट स्थान में भी उसे मूर्छा को छोड़नी चाहिए। काल से शरद ऋतु आदि में उस काल में भी बुद्धि को आसक्त नहीं करनी चाहिए और इस तरह ही भाव में भी 'अप्रशस्त भावों का राग न करना' इत्यादि जानना। इस तरह मुक्ति की गवेषणा करते और विशुद्ध लेश्या वाले मुनि भी केवल संयम की साधना के सिवाय अन्य सारी उपाधि का त्याग करे। तथा उत्सर्ग मार्ग को चाहता मुनि अल्प परिकर्म और अति परिकर्म वालाये दोनों प्रकार की शय्या, संथारा आदि का त्याग करे । और जो साधु पाँच प्रकार की शुद्धि किये और पांच प्रकार के विवेक को प्राप्त किये बिना मुक्ति की चाहना करता है, वह निश्चय समाधि को प्राप्त नहीं करता है । उसमें आलोचना की, शय्या की, उपाधि की, आहार, पानी की और वैयावच्य कारक की, इस तरह शुद्धि पाँच प्रकार कही हैं। अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धि तथा विनय और आवश्यक की शुद्धि, ये भी पाँच प्रकार की शुद्धि होती हैं । और विवेक इन्द्रियों का, कषाय का, उपाधि का, आहार पानी का, और शरीर का, ये पाँच प्रकार के विवेक दो भेद से हैं-द्रव्य से और भाव से । अथवा (१) शरीर का, (२) शय्या का, (३) संथारा सहित उपाधि का, (४) आहार पानी का, और (५) वैयावच्य कारक का। यह भी पाँच प्रकार का विवेक अर्थात् त्याग समझना। इस तरह से उन सर्व का त्याग करने वाला उत्तम मुनि सहस्र मल्ल के समान मृत्युकाल में भी लीलामात्र से सहसा विजय पताका को प्राप्त करता है । वह इस प्रकार है :
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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