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________________ २०८ श्री संवेगरंगशाला विरागी हो, तो सर्व पाप को त्याग करने में उत्साही संयमरूपी श्रेष्ठ राज्य के रस वाला वह महात्मा संस्तारक दीक्षा को भी स्वीकार करे। उसमें यदि अणुव्रतधारी और केवल संथारारूप श्रमण दीक्षा को प्राप्त करता हो, वह संलेखनापूर्वक अन्तःकाल में अनशन अर्थात् चारों आहार का त्याग करे। इस तरह गृहस्थ का अनशन पूर्वक संस्तारक दीक्षा की प्राप्ति नामक आठवाँ द्वार कहा है, ऐसा कहने से गृहस्थ के परिणाम को कहा है। अब समग्र गुणमणि के निधान स्वरूप श्री मुनियों के विषय में परिणाम कहते हैं, वह परिणाम इस तरह चिन्तन द्वारा शुभ होते हैं। मध्यरात्री में धर्म जागरण करते हुए चढ़ते परिणाम वाला मुनि विचार करे कि-अहो ! यह संसार समुद्र रोग और जरा रूपी मगरों से भरा हुआ है। हमेशा होने वाले जन्म मृत्यु रूपी पानी वाला, द्रव्य क्षेत्र आदि की चार प्रकार की आपत्तियों से भरा हुआ, अनादि सतत् उत्पन्न होते विकल्परूपी तरंगों द्वारा हमेशा जीवों का नाश करता रौद्र और तीक्ष्ण दुःखों का कारण है। उसमें अति दुर्लभ मनुष्य जन्म को महा मुश्किल से प्राप्त करके भी जीव अति दुर्लभ श्री जैन कथित धर्म सामग्री को प्राप्त कर सकता है। उसे प्राप्त करके भी अविरतिरूपी पिशाचनी के गाढ़ बन्धन में पड़े हुए जीवों को असामान्य गुणों से श्रेष्ठ साधुत्व प्राप्त करना तो परम दुर्लभ ही है। कई दुर्लभ भी साधु जीवन को प्राप्त करके थके हुये और सुखशील कीचड़ में फँसने से बड़े हाथी के समान दुःखी होते हैं। जैसे कांकिणी के लिए कोई महामूल्य करोड़ों रत्नों को गँवा देता है, वैसे संसार के सुख में आसक्त जीव मुक्ति के सुख को हार जाता है। अरे ! यह शरीर, जीवन, यौवन, लक्ष्मी, प्रिय संयोग, और उसका सुख भी अनित्य परिणाम वाला, असार और नाश वाला है, इसलिए अति दुर्लभ मनुष्य जीवन और श्री जैन वचन आदि सामग्री को प्राप्त कर पुरुष को शाश्वत सुख में एक रसवाला बनना चाहिए। भव्य जीवों को आज जो संसार का सुख है, वह कल स्वप्न समान केवल स्मरण करने योग्य बन जाता है। इस कारण से पंडित जन उपसर्ग बिना का मोक्ष का शाश्वत सुख की इच्छा करते हैं। चक्रवर्ती और इन्द्र के सुख को भी ज्ञानियों ने तत्त्व से दुःख स्वरूप कहा है, क्योंकि--वह परिणाम से भयंकर और अशाश्वत है। अतः मुझे उस सुख से क्या प्रयोजन है ? शाश्वत सुख की प्राप्ति यह अवश्य श्री जैन आज्ञा के आराधना का फल है । अतः श्री जैन वचन से विशुद्ध बुद्धिपूर्वक उस आज्ञा पालन में उद्यम करूँ। इतने समय में तो सामान्यता से श्रमण जीवन का पालन किया, अब वर्तमान काल में कुछ विशिष्ट क्रिया की साधना करूं !
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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