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________________ श्री संवेगरंगशाला २०७ होने पर भी अभी भी पापों का घररूप इस गृहवास में रहना किस तरह योग्य है ? अर्थात् सर्वथा अयोग्य है । इन्द्रियों के विषयों में आसक्त और परमार्थ से वैरी भी पत्नी आदि परिवार में गाढ़ राग वाला अनार्य मुझे धिक्कार हो ! साधुओं को धन्य है कि जो मोहरूपी योद्धा को जीतने वाले हैं । जितेन्द्रिय, सौम्य, राग-द्वेष से विमुक्त, संसाररूपी वृक्ष को नाश करने में तीक्ष्ण शस्त्र समान है। उन्होंने आश्रव को रोककर तपरूप धन बढ़ाने वाले हैं । क्रिया में अत्यन्त आदर वाला शाश्वत सुखरूप मोक्ष के लिए सतत् सम्यग् उद्यम को करते हैं, इसलिए मेरा वह दिन कब आयेगा ? कि जब मैं गीतार्थ गुरू के पास चारित्र को स्वीकार करके मोक्षार्थ उद्यम करूँगा । मोक्षार्थ को साधन करने के अन्य सर्व सामग्री प्राप्त होने पर भी सर्व विरति बिना शाश्वत सुख वाला मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? इसलिए अब जब तक मेरे आयुष्य मास वर्ष आदि विद्यमान हैं, तब तक सर्व राग का त्याग करके मोक्ष मार्ग का अनुकरण करूँ । अथवा लम्बा आयुष्य दूर रहे ! निश्चय समभाव में प्रवृत्ति करते मुझे एक मुहूर्त भी यदि प्रवज्या के परिणाम में हो जाए अर्थात् सर्व विरति गुण स्पर्श हो जाए तो क्या प्राप्त न हो ? ऐसे परिणाम से युक्त बना वणपूर्वक बढ़ते तीव्र संवेगवाला श्री गुरूदेव के पास जाकर शुद्ध भाव से कहता है कि हे भगवन्त ! करुणारूपी अमृत के झरने से श्रेष्ठ आपने मुझे जो कहा था कि'आलोचनादि पूर्वक दीक्षा आदि स्वीकार कर ।' और मैंने भी 'इच्छामि' ऐसा कहकर जो स्वीकार किया था । अतः अब मैं जितनी आयुष्य शेष है, तब तक वैसा करना चाहता हूँ । हे पुज्य पुरुष ! मैं प्रवज्या रूपी अति प्रशस्त नाव में बैठकर परम तारक आप श्री की सहायता से संसार समुद्र को तरना चाहता हूँ । उसके बाद अत्यन्त भक्ति भार से नमे हुए मस्तक वाले उसे गुरू महाराज भी विधिपूर्वक निरवद्य प्रवज्या (दीक्षा) दे । और यदि वह देश विरति और सम्यक्त्व का रागी तथा जैन धर्म में रागी हो, तो उसे अति विशुद्ध अणुव्रतों को उच्चारणपूर्वक दे । फिर बाह्य इच्छा रहित उदार मन वाला और हर्ष से विकसित रोमांचित शरीर वाला, वह भक्तिपूर्वक गुरू महाराज का और साधार्मिकादि संघ की पूजा करे और अपने धन को नये श्री जैन मन्दिर, श्री जैन बिम्ब, और उसकी उसकी उत्तम प्रतिष्ठा में, तथा प्रशस्त ज्ञान की पुस्तकों में, उत्तम तीर्थों में, तथा श्री तीर्थंकर देव की पूजा में खर्च करे । परन्तु किसी तरह वह सर्व विरति में युक्त अनुराग वाला हो, विशुद्ध बुद्धि और काया वाला, स्वजनों के राग से मुक्त और विषय रूपी विष से यदि
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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