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________________ २०६ श्री संवेगरंगशाला मृत्युकाल को सम्यग् जान सकता है । उस प्रकार से कहते हैं— अति पवित्र बना हुआ और एकाग्र चित्त वाला पुरुष चोटी में 'स्वा' मस्तक में 'ॐ' दोनों आँखों में 'क्ष' हृदय में 'प' और नाभि में 'हा' अक्षरों का स्थापन करके, फिर “ॐ जुसः, ॐ मृत्युं जयाय, ॐ वज्रपाणिनि, शूलपाणिने, हर हर, दह दह स्वरूप दर्शन दर्शन हूँ फट फट ।" इस विद्या से १०८ बार अपने दोनों नेत्रों को मन्त्रित कर फिर अरूणोदय के समय अपनी छाया को उसी तरह मन्त्रित करके सूर्योदय के सूर्य को पीठ करके पश्चिम में मुख रखकर निश्चय शरीर वाला अपने दूसरे के लिए और के लिए अपनी और दूसरे की छाया को सम्यग् रूप मन्त्रित कर परम उपयोगपूर्वक उस छाया को देखना चाहिये । यदि वह छाया सम्पूर्ण रूप में दिखाई दे तो एक वर्ष तक मृत्यु नहीं होगी । छाया में पैर, जंघा और घुटना न दिखाई देने पर क्रमशः तीन, दो और एक वर्ष में मृत्यु होगी । अरू (पिण्डली ) न दिखाई दे तो दस महीने में, कमर न दिखाई दे तो आठ-नौ महीने में, और पेट न दिखाई दे तो पाँच-छह महीने में मृत्यु होती है । यदि गर्दन न दिखाई दे तो चार, तीन, दो अथवा एक महीने में मृत्यु होती है । यदि बगल न दिखाई दे तो पन्द्रह दिन में और भुजा न दिखाई दे तो दस दिन में मृत्यु होती है । यदि कंधा न दिखाई दे तो आठ दिन में, हृदय में छिद्र न दिखाई दे तो चार मास में, योगशास्त्र में यदि हृदय न दिखाई दे तो चार प्रहर का काल बतलाया है और मस्तक दिखाई न दे तो दो प्रहर में ही मृत्यु होगी तथा किसी कारण से उस पुरुष को छाया का यदि सर्वथा न दिखाई दे तो तत्काल ही मृत्यु होती है । ( इसी प्रकार वर्णन योगशास्त्र में प्रकाश ५ श्लोक २१७ से २२३ में आया है ।) यद्यपि आयुष्य को जानने के लिए इसके अतिरिक्त अनेक उपाय शास्त्रों में कहे हैं फिर भी यहाँ वह अल्पमात्र कहा है । योगशास्त्र के पाँचवें प्रकाश में कई मन्त्रान्तर बतलाएँ हैं । इस तरह मूल परिकर्म द्वार का नौवाँ परिणाम अन्तर द्वार में भी सातवाँ आयुष्य ज्ञान द्वार नाम का अन्तर द्वार सुन्दर रूप से कहा है । अब 'अनशन सहित संस्तारक दीक्षा का स्वीकार' इस नाम के आठवें द्वार को मैं कहता हूँ । 1 ८. अणसण प्रतिपति द्वार : - पूर्व कहने के अनुसार विधि से मृत्युकाल नजदीक जानकर अन्तिम आराधना की विधि को सम्पूर्ण आराधना की इच्छा वाला जन्म-मरण, जरा से भयंकर दीर्घ संसारवास से भयभीत बना श्री जैन वचन के श्रवण करने से प्रकट हुआ तीव्र संवेग श्रद्धा वाला और प्रमादादि गुणरूप समृद्धि वाला उत्तम श्रावक के चित्त में निश्चित स्वभाव से ही नित्य ऐसी भावना होती है । अरे रे ! मुझे परम अमृत सदृश जैन वचन की श्रद्धा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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