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________________ श्री संवेगरंगशाला १८१ और (१०) श्रुत, इन सबका भी कार्य करणीय है । क्योंकि साधारण द्रव्य का खर्च जैन मन्दिर आदि इन दस में ही करने को कहा है। इसलिये, धन्यात्माओं को ही निश्चय इस विषय में बुद्धि प्रगट होती है। यहाँ पर किसी को ऐसी कल्पना हो कि-यह दस स्थान जैन कथित सूत्र में किस स्थान पर कहा है ? और जैन के बिना अन्य का कहा हुआ प्रमाण भूत नहीं है। तो उसे इस तरह समझो कि-निश्चय रूप इन दस का समुदित--एकत्रित कहीं पर नहीं कहा है, परन्तु भिन्न-भिन्न रूप में सूत्र के अन्दर कई स्थान पर कहा ही है और सूत्र में चैत्य, द्रव्य, साधारण द्रव्य इत्यादि वचनों से साधारण द्रव्य का स्पष्ट अलग बतलाया ही है, तो अर्थापत्ति ने उसको खर्च करने का स्थान भी निश्चय ही कहा है। इस तरह कुशल अनुबन्ध का एक कारण होने से भव्य जीवों के हित के लिये आगम के विरोध बिना-आगम के अनुसार हम यहाँ उस स्थान को ही जैन मन्दिरादि रूप दस प्रकार विषय को विभाग द्वारा स्पष्ट बतलाया है। इस जैन मन्दिरादि स्थानों में एक-एक स्थान की भी सेवा करने से पुण्य का निमित्त बनता है, तो वह समग्र की सेवा का तो कहना ही क्या ? अर्थात् अपूर्व लाभ है । यह साधारण द्रव्य प्राप्ति के लिये प्रारम्भ करते आत्मा को उसी दिन से जैन मन्दिर आदि सर्व की सेवा चालू होती है । क्योंकि उसका अनुबन्धपूर्वक चित्त का राग प्रारम्भ से ही एक साथ में उसके विषय भूत सर्व द्रव्य क्षेत्र आदि में पहुँच जाते हैं। इसलिये सर्व प्रकार से विचार कर, अपने वैभव के अनुसार कुछ भी अपने धन से वे साधारण द्रव्य को एकत्रित करना प्रारम्भ करते हैं। जो अन्याय आदि किए बिना विधिपूर्वक प्रतिदिन उसकी वृद्धि करते हैं, अचलित चित्त वाला जो महासत्त्वशाली उसमें मोह रखे बिना उसका रक्षण करता है। और जो पूर्व कहे अनुसार क्रम से निश्चय उसे उसउस स्थान पर आवश्यकतानुसार खर्च करता है, वह धीर पुरुष तीर्थंकर गोत्र कर्म का पुण्य उपार्जन करता है। और प्रतिदिन उस विषय में बढ़ते अध्यवसाय से अधिकाधिक प्रसन्नता वाला वह पुरुष निश्चय ही नरक और तिर्यंच इन दो गति को रोक देता है। उसका वहाँ जन्म कभी नहीं होता है । और उसको कभी भी अपयश, नाम, कर्म और नीच गोत्र का बन्धन नहीं होता है, परन्तु सविशेष निर्मल सम्यक्त्व रत्न का धारक बनता है। स्त्री अथवा पुरुष जो प्रारम्भ होने के बाद भी अपने धन को साधारण में देता है वह अवश्यमेव उत्तरोत्तर परम कल्याण की परम्परा को प्राप्त करता है। इस जन्म में भी अपना यश समूह से तीनों भवन को भर देता है। पुण्यानुबन्धी सम्पत्ति का स्वामी, पवित्र भोग सामग्री वाला और उत्तम
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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