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________________ १८२ श्री संवेगरंगशाला परिवार वाला बनता है। और परभव में उत्तम देव, फिर मनुष्यभव में उत्तम कुलिन पुत्र रूप होकर चारित्र रूपी सम्पत्ति का अधिकारी बनकर वह अन्त में सिद्ध पद प्राप्त करता है। अब अधिक कहने से क्या ? यदि उस भव में उसका मोक्ष न हो तो तीसरे भव से सातवें भव तक में अवश्य होता है, परन्तु आठवें भव को अधिक नहीं होता है । और जो किसी से मोहित हुआ साधारण द्रव्य में मूढ़ मन वाला व्यामोह से अपने पक्षपात के आधीन बना केवल जैन मन्दिर अथवा जैन बिम्ब, मुनि या श्रावक आदि किसी एक ही विषय में साधारण द्रव्य को व्यय करता है, परन्तु पूर्व कहे अनुसार जहाँ आवश्यकता हो उसकी विधि पूर्वक जैन मन्दिरादि सर्व क्षेत्रों में सम्यग व्यय नहीं करता है वह प्रवचन (आगम) का वंचक या द्रोही कुमति को प्राप्त करता है। क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति से वह शासन का विच्छेदन करना चाहता है अथवा करता है। इस तरह परिणाम द्वार में काल विगमन नामक तीसरा प्रति द्वार भी प्रासंगिक अन्य विषयों सहित कहा । अब प्रथम परिकर्म द्वार के नौवाँ परिणाम द्वार का पुत्र प्रतिबोध द्वार कहते हैं। ___ चौथा पुत्र प्रतिबोध द्वार :-पूर्व में विस्तारपूर्वक कहा है। उन नित्य कृत्यों में निश्चय अपना एकाग्र चित्त वाला गृहस्थ कुछ काल व्याधिरहित जीवन व्यतीत होने के बाद अधिकार में पुत्र की सफलता को देखकर सविशेष उत्साह वाला, आराधना का अभिलाषी, प्रगट हुआ वैराग्य वाला वह सुश्रावक अपने अतिगाढ़ राग वाले वितीत पुत्र को बुलाकर संसार प्रति वैराग्य उत्पन्न हो, ऐसी भाषा से इस तरह समझाये-हे पूत्र ! इस संसार की स्वाभविक भयंकरता का जो कारण है कि इस संसार में जीवों को सर्वप्रथम मनुष्य जीवन प्राप्त करना दुर्लभ है, उसका जन्म यह मृत्यु का दूत है और सम्पत्ति अत्यन्त कष्ट से रक्षण हो सके, ऐसी प्रकृति से ही संध्या के बादलों के रंग समान चंचल है। रोग रूपी भयंकर सर्प क्षण भर में भी निर्बल बना देता है और सुख का अनुभव भी वट वृक्ष के बीज समान अल्प होते हुये भी महान् दुःखों वाला है। स्थान-स्थान पीछे लगा हुआ आपदा भी मेरू पर्वत सदृश महान् अति दारूण दुःख देता है । श्रेष्ठ और इष्ट सर्व संयोग भी निश्चित भविष्य में नाश होने वाला है और उत्पन्न हुआ मनोरथ का शत्रु मरण भी आ रहा है । यह भी समझ में नहीं आता कि यहाँ से मरकर परलोक में कहाँ जाना है ? और ऐसी सद्धर्म की सामग्री भी पुनः प्राप्त करना अति दुर्लभ है । इसलिए हे पुत्र ! जब तक भी मेरे इस शरीर रूपी पिंजरे को जरा रूपी पिशाचनी ने ग्रसित नहीं किया, इन्द्रिय भी निर्बल नहीं हुई, जब तक उठने बैठने आदि का बल
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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