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________________ १८० श्री संवेगरंगशाला कहने में दोष नहीं है । क्योंकि बहुत जन मिलने से परस्पर विनयादि आचरण करने से सद्गुण सविशेष भावना वाला होता है, वह अनुभव सिद्ध है । जैसे कि-परस्पर विनय करना, परस्पर सारणा-वारणादि करना, धर्म-कथा, वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय करना, स्वाध्याय से थके हुए को विश्रान्ति लेना, और धर्म बन्धु उनका परस्पर सुख-दुःख आदि पूछना, भूले हुये सूत्र अर्थ और तदुभय का परस्पर पूछना, बताना, स्वयं देखी या सुनी हुई समाचारी को समझाये । परस्पर सुने हुये अर्थ को विभागपूर्वक उस विषय में सम्यक् स्थापन करना, उसका निर्णय करना, और शास्त्रोक्त योग विधि का परस्पर निरूपण करना, एक पौषधशाला में मिलने से कोई हमेशा कर सकता हो, कोई नहीं कर सकता हो । ऐसी धर्म की बातों को परस्पर पूछने का होता है, जो कर सकते हो, उसकी प्रशंसा कर सकते हैं और जिसको करना दुष्कर हो, उनको उस विषय में शास्त्र विधि अनुसार उत्साह बढ़ा सके। इस तरह परस्पर प्रेर्यप्रेरक भाव से गुणों का श्रेष्ठ विकास होता है। इसलिए ही व्यवहार सूत्र में राजपुत्रादि को भी एक पौषधशाला में धर्म का प्रसंग करने को बतलाया है। इस तरह अनेक भी उत्तम श्रावकों को सद्धर्म करने के लिये निश्चय ही सर्व साधारण एक पौषधशाला बनाना योग्य है । अब अधिक कहने से क्या लाभ ? गुरू के उपदेश से यह पौषधशाला द्वार कहा । अब दर्शन कार्य द्वार को कुछ अल्पमात्र कहता हूँ : १०. दर्शन कार्य द्वार :-यहाँ पर चैत्य संघ आदि अचानक ऐसा कोई विशिष्ट कार्य किसी समय आ जाये तो वह दर्शन कार्य जानना । वह यहाँ अप्रशस्त और प्रशस्त भेद से दो प्रकार का जानना, उसमें जो धर्म विरोधी आदि द्वारा जैन भवन या प्रतिमा का तोड़-फोड़ करना इत्यादि उस सम्बन्धी कार्य करना अथवा धर्मद्वेषी ने संघ को उपद्रव करना या क्षोभरूप कार्य करना, वह प्रशस्त जानना। और देव द्रव्य सम्बन्धी श्रावक आदि करवाना, इत्यादि उस सम्बन्धी कार्य करना, वह प्रशस्त जानना। इन दोनों प्रकार में भी प्रायः राजा आदि के दर्शन-मिलने से हो सकता है । उस राजादि को मिलने का कार्य भेटना आदि दिये बिना नहीं होता है, इसलिए जब दूसरी ओर ऐसा धन नहीं मिले तो उचित काम जानकार श्रावक साधारण द्रव्य से भी उसे देने का विचार करे। ऐसा करने से इस लोक में कीर्ति और परलोक में सद्गति की प्राप्ति इत्यादि । उभयलोक में कौन-कौन से गुण लाभ नहीं होता? इस कार्य में यथा योग्य प्रयत्न करना चाहिये । उसे—(१) चैत्य, (२) कुल, (३) गण, (४) साधु, (५) साध्वी, (६) श्रावक, (७) श्राविका, (८) आचार्य, (६) प्रवचन,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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