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________________ १७८ श्री संवेगरंगशाला सम्यग् नाश करना चाहिए और उसकी रक्षा करनी चाहिये । इस तरह साध्वी द्वार कहा । अब श्रावक द्वार कहते हैं : ७. श्रावक द्वार :-इसमें श्रावक यदि धर्म में अनुरागी चित्त वाला हो, धर्म अनुष्ठानों में तल्लीन रहता हो और श्रेष्ठ गुण वाला होते हुये भी यदि किसी तरह आजीविका में मुश्किल होती हो, तो उसमें व्यापार कला हो तथा यदि वह धन का गलत कार्यों में नाश करने वाला न हो, तो कोई भी व्यवस्था करके साधारण द्रव्य से भी व्यापार के लिए उसे मूल राशि दे, और वह व्यापार की कला से रहित हो, तो भी उसे आवश्यकता से आधा या चौथा भाग आदि आजीविका के लिये दे, अथवा यदि वह व्यसनी, झगड़े करने वाला अथवा चुगल खोर न हो, चोर या लंपट आदि अवगुण न हो, शुद्ध, स्वीकार की बात को पालन करने वाला, दाक्षिय गुण वाला और विनय रूपी धन वाला विनीत हो तो उसे ही नौकर के कार्य में अथवा अन्य किसी स्थान करना चाहिए । समान धर्मी अर्थात् सार्मिक भी निश्चय ही विपरीत उन गुणों से रहित हो, उसे रखने से अवश्य ही लोग में अपनी और शासन की भी निन्दा होने का सम्भव है। ८. श्राविका द्वार :-श्रावक द्वार के समान श्राविका द्वार भी इसी तरह जानना । केवल आर्याओं के समान उनकी भी चिन्ता विशेषतया करनी चाहिए। इस तरह करसे से धीर उस श्रावक ने श्री जैन शासन का अविच्छेदन रूप रक्षण के लिए परम प्रयत्न किया है, ऐसा मानना चाहिए । अथवा ऐसा करने से उसको सम्यक्त्वादि गुणों का पक्षपाती माना जाता है और उसके द्वारा ही सर्वज्ञ शासन भी प्रभावित हुआ गिना जायेगा। इस द्वार में प्रसंग अनुसार सार्मिक के प्रति कैसा व्यवहार करना उसे कहते हैं। सार्धामक के प्रति व्यवहार :-स्वजन परजन के विचार बिना समान जाति वाला या उपकारी आदि की अपेक्षा बिना ही 'साथ में धर्म करने वाला होने से यह मेरा धर्म बन्धु है'। इस तरह नित्य विचार करते श्रावक धर्म, आराधना की समाप्ति, पुत्र जन्म, विवाह आदि के समय पर सार्मिक बन्धुओं का सस्मरण करे, आमन्त्रण देकर स्वामी वात्सल्य करे, उनको देखते ही सकुशल वार्तादि सम्भाषण करे और सुपारी आदि फलों से सत्कार सन्मार्ग करे। रोगादि में औषधादि से प्रतिकार कर सेवा करे, मार्ग में चलने से थक जाने से अंग मर्दन आदि करे, विश्रान्ति दे, उनके सुख में अपने को सुखी माने, उनके गुणों की प्रशंसा करे, अपराध-दोष को छिपाए, व्यापार में कमजोर हो,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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