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________________ ૧૭૬ श्री संवेगरंगशाला और जीवों को अभयदान दिया। अर्थात् जो-जो उपकार होता है वह सर्व शास्त्रों से ही होता है, ऐसा मानना चाहिए। अतः इस कार्य में शक्ति अनुसार प्रवृत्ति करना चाहिए । इस तरह पुस्तक द्वार पूर्ण हुआ। अब साधु साध्वी द्वार को कहते हैं : ५. साधु द्वार :-इसमें मुनि पुंगव को संयम के लिए वस्त्र, आसन, पात्र, औषध, भेषज आदि भी उत्सर्ग मार्ग में सचित्त का अचित्त करना, खरीद करना या पकवाना। ये तीनों क्रिया साधू के लिए करना, करवाना या अनुमोदन नहीं किया हो, ऐसा नौ कोटि विशुद्ध देना चाहिये। क्योंकि जो संयम की पुष्टि के लिए ही साधु को दान देता है तो इस तरह उनके लिए पृथ्वी का आदि की हिंसा करना वह कैसे योग्य गिना जाये ? यदि दिनचर्या में कहा है कि-संयम निर्वाह में रुकावट न आती हो, तो भी अशुद्ध दोषित वस्तु का दान रोगी और वैद्य के समान लेने वाला और देने वाला दोनों का अहितकर है । और संयम निर्वाह नहीं होता हो तब वही वस्तु लेने वाला, देने वाला दोनों को हित करता है। परन्तु जब उपधि वस्त्रादि को चोर चोरी कर गया हो, अति गाढ़ बिमारी या दुष्काल हो इत्यादि अन्य भी अपवाद समय पर सर्व प्रयत्न करने पर भी यदि निर्दोष वस्त्र, आसन्न आदि की और औषध, भेषज आदि की प्राप्ति नहीं होती हो तो अपने या दूसरे के धन की शक्ति से साधु के लिए खरीद करना अथवा तैयार किया आदि दोषित भी दे और दूसरा भी वैसी शक्ति सम्पन्न न हो तो ऐसे समय पर वह साधारण द्रव्य से भी सम्यग् रूप दे और दोषित छोड़ने वाले साधु भी उसे अनादर से स्वीकार करे। क्योंकि-मुनियों को संयम निर्वाह शक्य हो तब उत्सर्ग से जो द्रव्य लेने का निषेध है, वह सर्व द्रव्य भी किसी अपवाद के कारण लेना कल्पता है। यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि-'जिसको पूर्व में निषेध किया, उसी को ही पुनः वही कल्पता है।' ऐसा कहने से तो अनावस्था दोष लगता है और इससे नहीं तीर्थ रहेगा, या न तो सत्य रहेगा। यह दर्शन शास्त्र तो निश्चय उन्मत्त वचन समान माना जायेगा । अकल्पनीय हो वह कल्पनीय नहीं हो सकता है, फिर भी यदि इस तरह से तुम्हारी सिद्धि होती हो तो ऐसी सिद्धि किसको नहीं हो ? अर्थात् सर्व को सिद्धि हो जाये। इसका उत्तर आचार्य श्री कहते हैं कि-श्री जिनेश्वर भगवान ने अब्रह्म बिना एकान्त कोई आज्ञा नहीं दी है और एकान्त कोई निषेध नहीं किया है। उनकी आज्ञा यह है कि प्रत्येक कार्य में सत्यता का पालन करना, माया नहीं
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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