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________________ श्री संवेग रंगशाला १७५ गाँव आदि के सर्व मुख्य व्यक्तियों को एकत्रित करके साधु अथवा श्रावक भी अति चतुरता के साथ - युक्ति संगत मधुर वचनों से उनको समझाए कि - यहाँ अन्य कोई नहीं, तुम ही एक परम धन्य हो कि जिसके गाँव या नगर में ऐसा सुन्दर भव्य रचना वाला प्रशंसनीय, मनोहर, मन्दिर और जैन बिम्बों के दर्शन होते हैं और तुम्हारे सर्व देव सम्यक् पूज्नीय हैं, सर्व श्री सम्यक् वन्दनीय हैं और सर्व भी पूजा करने योग्य हैं, तो यहाँ पर अब पूजा क्यों नहीं होती ? तुम्हें देवों की पूजा करने में अन्तराय करना योग्य नहीं है, इत्यादि वचनों से उन्हें अच्छी तरह समझाये, आग्रह करे । फिर भी वे यदि नहीं मानें और दूसरे से भी पूजा का सम्भव न हो तो साधारण द्रव्य को भी देकर वहाँ रहते माली आदि अन्य लोगों के हाथ में भी पूजा, धूप, दीप और शंख बजाने की व्यवस्था करे | ऐसा करने से अपने स्थान का अनुरागी बनता है । वहाँ रहने वाले भव्य प्राणियों को निश्चय घर के प्रारंग में ही कल्पवृक्ष बोने जैसी प्रसन्नता होती है और परम गुरू श्री जिनेश्वरों की प्रतिमाओं में पूजा का अतिशय देखकर सत्कार आदि प्रगट होता है, इससे जीवों के बोधिजीव प्राप्ति होती है । इस तरह पूजा द्वार को संक्षेप से सम्यक् रूप कहा, अब गुरू के उपदेश से पुस्तक द्वार को भी कहते हैं --- ४. आगम पुस्तक द्वार : - इसमें अंग उपांग सम्बन्धी अथवा चार अनुयोग के उपयोगी, योनि प्राभृत, ज्योतिष, निमित्त शास्त्र आदि के रहस्यार्थ वाला, अथवा अन्य भी जो शास्त्र श्री जैन शासन की महा उन्नति करने वाला और महागूढ़ अर्थ वाला हो, उसे नाश होते स्वयं देखे अथवा दूसरे के मुख से सुने । परन्तु उसे लिखने में स्वयं असमर्थ हो, दूसरा भी उसे लिखाने में कोई नहीं हो तो ज्ञान की वृद्धि के लिए उसे साधारण द्रव्य से भी लिखाना चाहिए। तीन या चार लाइन से ताडपत्र के ऊपर अथवा बहुत लाइन से कागज के ऊपर विधिपूर्वक लिखवाकर उन पुस्तकों को, जहाँ अच्छा बुद्धिमान संघ हो, ऐसे स्थान पर रखना चाहिये । तथा जो पढ़ने में एवम् याद रखने में समर्थ प्रभावशाली, भाषा में कुशल प्रतिभा आदि गुणों वाले मुनिराज हों, उन्हें विधिपूर्वक अर्पण करे और आहार, बस्ती, वस्त्र आदि का दान देकर शासन प्रभावना के लिए उसकी वाचना विधि करे, अर्थात् श्रेष्ठ मुनियों से पढ़ाए और स्वयं सुने । इस तरह आगम का उद्धार करने वाले तत्त्व से, मिथ्या दर्शन वालों से, शासन को पराभव होते रोक सकते हैं । नया धर्म प्राप्त करने वाला, धर्म में स्थिरता प्राप्त करवाकर, चारित गुण की विशुद्धि की है । इस ररह श्री जैन शासन की रक्षा की भव्य प्राणियों की अनुकम्पा भक्ति की
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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