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________________ १७४ श्री संवेगरंगशाला 1 वह सादि अनन्त काल तक संसारी जीवों को दुःख बाधायें नहीं करता है । इस तरह जैन मन्दिर बनाने में अहिंसा की सिद्धि होती है । जैसे रोगी को अच्छी तरह प्रयोग से नस छेदन आदि वैद्य क्रिया में पीड़ा होती है, परन्तु परिणाम से सुन्दर लाभदायक होता है, वैसे ही छह काय की विराधना होते हुये भी परिणाम से इसका फल अति सुन्दर मिलता है । इस तरह प्रथम जैन मन्दिर द्वार कहा । अब जैन बिम्ब द्वार कहते हैं। २. जैन बिम्ब द्वार : - इसमें किसी गाँव, नगर आदि में सर्व अंगों से अखण्ड जैन मन्दिर है, किन्तु उसमें जैन बिम्ब नहीं हो, क्योंकि - पूर्व में किसी ने उसका हरण किया हो अथवा तोड़ दिया हो अथवा अंगों से खण्डित हुई हो तो पूर्व में कहे विधि अनुसार स्वयं अथवा दूसरे भी सामर्थ्य के अभाव में साधारण द्रव्य भी लेकर सुन्दर जैन बिम्ब को तैयार करा सकता है | चन्द्र समान सौम्य शान्त आकृति वाला और निरूपम रूप वाला जैन बिम्ब (प्रतिमा) तैयार करवाकर ऊपर कहे जैन मन्दिर में उसके उचित विधि से प्रतिष्ठित करे । उसे देखकर हर्ष से विकसित रोमांचित वाले कई गुणानुरागी को बोधिलाभ की प्राप्ति होती है और कई अन्य जीव तो उसी भव में ही जैन दीक्षा को भी स्वीकार करते हैं । परन्तु यदि वह गाँव, नगर आदि अनार्य पापी लोगों से युक्त हो, वहाँ के रहने वाले पुरुषों की दशा पड़ती हो अथवा वह गाँव आदि देश की अन्तिम सीमा में हो, श्रावक वर्ग से रहित हो, वहाँ जैन मन्दिर जर्जरित हो गया हो, फिर भी उसमें जैन बिम्ब सर्वांग सुन्दर अखण्ड और दर्शनी यहो तो वहाँ अनार्य, मिथ्यात्वी, पापी लोगों द्वारा आशातना आदि दोष लगने के भय से उस जीर्ण जैन मन्दिर में से भी जैन बिम्ब को उत्थापन करके अन्य उचित गाँव, नगर आदि में ले जाकर प्रतिष्ठित करे और इस तरह परिवर्तन की सामग्री का यदि स्वयं के पास या अन्य के पास से भी मिलने का अभाव हो तो साधारण द्रव्य से भी यथायोग्य उस सामग्री के उपयोग में लगाये । ऐसा करने से बोधिबीज का आदि क्या-क्या लाभ नहीं होता ? अर्थात् इससे अनेक लाभ होते हैं । इस तरह जैन बिम्ब द्वार कहा । अब जैन पूजा द्वार कहते हैं : -- ३. जैन पूजा द्वार : - इसमें सदाचारी मनुष्यों से युक्त इत्यादि गुणों वाले क्षेत्रों में जैन मन्दिर दोष रहित सुन्दर हो और जैन बिम्ब भी निष्कलंक श्रेष्ठ हो । किन्तु वहाँ रकाबी, कटोरी आदि की पूजा की कोई सामग्री वहाँ नहीं मिलती हो तो स्वयं देखकर अथवा पूर्व कहे अनुसार सुनकर, उस नगर,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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