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________________ श्री संवेगरंगशाला १७३ शासन के भक्ति राग से सात धातुओं का अनुरागी श्रावक स्वयं विचार करता है कि-अहो ! मैं मानता हूँ कि-किसी पुण्य का भण्डार रूप गृहस्थ ने ऐसा सुन्दर जैन मन्दिर बनाकर अपना यश विस्तार को एकत्रित करके यह मन्दिर रूप स्थापन किया है। किन्तु इस तरह मजबूत बनाने पर भी खेदजनक बात है कि कालक्रम से जीर्ण-शीर्ण हो गया है, अथवा तो संसार में उत्पन्न होते सर्व पदार्थ नाशवान हैं ही, इसलिए अब मैं इसे तोड़-फोड़ करवाकर श्रेष्ठ बनवाऊँ । ऐसा करने से यह मन्दिर संसाररूपी खाई में गिरते हुए मनुष्य के उद्धार के लिए हस्तावलम्बन बनेगा। ऐसा विचार कर यदि वह स्वयमेव तैयार कराने वाला शक्तिशाली हो तो स्वयं ही उद्धार करे और स्वयं में शक्ति यदि न हो तो उपदेश देने में कुशल वह अन्य भी श्रावकों को वह हकीकत समझाकर उसे सुधारने का स्वीकार करवाये । इस प्रकार जैसे स्वयं वैसे वह भी उद्धार कराने में यदि असमर्थ हो और यदि दूसरा भी कोई प्रस्तुत वह कार्य करने में समर्थ न हो तो ऐसे समय पर उस मन्दिर का साधारण द्रव्य से खर्च कर उद्धार करवाये । क्योंकि बुद्धिमान श्रावक निश्चय साधारण द्रव्य को इधर-उधर नहीं खर्च करे । और जीर्ण मन्दिर आदि नहीं रहता है, इसलिए अन्य के पास से भी द्रव्य प्राप्ति करने का यदि सम्भव न हो तो विवेक से साधारण द्रव्य भी खर्च कर, वह इस प्रकार से जीर्ण मन्दिर को नया तैयार करे, चलित को पुनः स्थिर करे, खिसक गये को पुनः वहाँ स्थापना करना, और सड़े हुए को भी पुनः नया जोड़ देना, गिरे हुये को पुनः खड़ा करना, लेप आदि न हो तो उसका लेप करवाना, चूना उतर गया हो तो उसे फिर से सफेदी करवाए, और ढक्कन आदि न हो तो उसे ढकवाये । इसके अतिरिक्त कलश, आमलसार, पात स्तम्भा आदि उसके सड़े गिरे जो जो अंग को तथा पड़े, टूटे या छिद्र गिरे किल्ले को अथवा उसका अंगभूत अन्य कोई भी जो कोई अति अव्यवस्थित देखे वह सर्व श्रेष्ठ प्रयत्न से अच्छी तरह तैयार करवाए । क्योंकि साधारण द्रव्य से भी उद्धार करने से जैन मन्दिर दर्शन करने वाले गुण रागी निश्चय बोधि लाभ के लिये होता है। यद्यपि जैन मन्दिर करने में निश्चय ही पृथ्वीकाय आदि जीवों का विनाश होता है, तो भी समकित दृष्टि को नियम से उस विषय में हिंसा का परिणाम नहीं होता, परन्तु अनुकम्पा का (भक्ति का) परिणाम होता है। जैसे किजैन मन्दिर को करवाने से अथवा जीर्णोद्धार करवाने से उसका दर्शन करने वाले भव्यताबोध प्राप्त कर सर्व विरती चारित्र को प्राप्त कर पृथ्वीकायादि जीवों की रक्षा करता है। और इससे वह निर्वाण पद मोक्ष प्राप्त करता है,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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