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________________ १५२ श्री संवेगरंगशाला युक्ति से संगत सिद्धान्त नित्य सुनने लगा। इस तरह हमेशा लगातार शास्त्र को सुनते-२ राजा ने अन्तिम संलेखना तक का गृहस्थ धर्म का सर्व परमार्थ जाना। एक सत्य धर्म से विमुख चित्त वाला कुरुचन्द्र बिना, अन्य उस नगर के निवासी अनेक लोगों को प्रतिबोध हुआ। परन्तु कुरुचन्द्र को प्रतिबोध नहीं होने से राजा ने चिन्तन किया कि मेरे साथ धर्म सुनने से भी इसे उपकार नहीं हुआ। परन्तु अब यदि आचार्य श्री उसके घर के नजदीक रहें तो प्रतिक्षण साधु क्रिया को देखने से इसे धर्म बुद्धि जागृत होगी । ऐसा सोचकर राजा ने उसी समय कुरुचन्द्र को बुलाकर कहा-भो ! देवानु प्रिय ! ये गुरू जंगम तीर्थ हैं, इसलिए स्त्री, पशु, नपुंसक रहित तेरे अपने घर में इनको रहने के लिये स्थान दे और फिर श्री अरिहंत परमात्मा का कथित धर्म को सूनो। क्योंकि-एक धर्म ही दुर्गति में डुबते मनुष्य का उद्धार करने में समर्थ है और स्वर्ग तथा मोक्ष सुखरूपी फल देने वाला कल्पवृक्ष है। और प्रिया, पुत्र, मित्र, धन, शरीर आदि सब एकान्त क्षण भंगुर, असार और अत्यन्त मनोव्यथा पैदा करने वाले हैं ऐसा समझ। राजा के ऐसा कहने से धर्म क्रिया से विमुख भी कुरुचन्द्र ने राजा के आग्रह से आचार्य जी को अपने घर में रहने का स्थान दिया। फिर हमेशा गुरू के उपदेश को वह सुनने लगा और कुछ राग से बंधे हुए हृदय वाला, सामान्य सद्भावना वाला उसने तपस्वी साधु पुरुषों को विविध तप में रंगे हुए देखा, तो भी श्री वीतराग के सद्धर्म को भावपूर्वक स्वीकार नहीं किया, अथवा भारी कमी को सद्गुरू का संयोग भी क्या कर सकता है ? उसके बाद कल्पपूर्ण होते आचार्य अन्य स्थान पर गये, तब श्री जैनेश्वर के आगम के रहस्यों को जानकार राजा ताराचन्द्र श्री जैन मन्दिर को तैयार करवाकर उसका अष्टाह्मिका आदि महोत्सव, यात्रा और विविध प्रकार की पूजा करने में रक्त चित्त वाला बना, शास्त्र विधि अनुसार कम्पादान आदि धर्म कार्य में प्रवृत्ति करने लगा। महल के नजदीक पौषधशाला बनाकर उसमें अष्टमी-चतुर्दशी आदि अन्य धर्म पर्व के दिनों में पौषध करने में उद्यमशील रहता था। घर में निवास बंधन रूप मानता था, पापी लोगों की संगत का त्यागी, और श्रेष्ठ विशेष गुणों में चित्तवृत्ति को स्थिर करते, विशेष गुण प्राप्ति की भावना वाला, राज्य और राष्ट्र के कार्यों को बाह्य वृत्ति से उदासीनता से ही चिन्तन करता और सच्चारित्र में प्रवृत्ति करता, धार्मिक लोगों की अनुमोदन करता, विशेष आराधना का अभिलाषी और उससे निर्मल परिणाम वाला वह राजा मरकर गृहस्थ धर्म की अन्तिम सर्वश्रेष्ठ गति बारहवें देवलोक में दिव्य ऋद्धि वाला
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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