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________________ श्री संवेगरंगशाला १५१ अच्छी तरह स्वस्थ है ? कुरुचन्द्र ने कहा-राजा की आज्ञा से यहाँ रत्नपुर में आया हैं और अब श्रावस्ती में जाऊँगा। एक तेरे विरह से गाढ़ दुःखी राजा बिना समग्र राजचक्र तथा देश सहित नगर की भी कुशलता है। जिस दिन तू निकला था उसी दिन से तुझे खोजने के लिए राजा ने सर्व दिशाओं में पुरुषों को भेजा था, परन्तु तू नहीं मिला। इससे हे महाभाग ! मेरा रत्नपुर में आगमन बहुत फलदायक बना कि जिससे तू मुझे पुण्य से आज अचानक यहाँ मिला। इधर मदन-मंजुषा जागृत होकर शयन कक्ष में ताराचन्द्र को नहीं देखने से तुरन्त-हे प्रियतम ! आप कहाँ हो ? ऐसा बोलते जब रोने लगी तब उसकी माता ने रत्न के अलंकारों की स्वयं चोरी करके कहा-हे पुत्री ! इस तरह लगातार क्यों रो रही है ? उसने कहा-माता ! मेरा हृदय वल्लम को मैं यहाँ कहीं नहीं देखती हूँ। उसे सुनकर कपट से बाहर अन्दर घर में देखकर व्याकुल जैसी कपट से बन कर माता ने कहा-वे रत्न के अलंकार भी नहीं दिखते हैं, मुझे लगता है कि उसे लेकर वह आज भाग गया है। अरे पापिष्ठा! उससे तू आज अच्छी तरह ठगी गई है, तु इसके योग्य ही है, क्योंकि तुझे बारबार रोकने पर भी निर्धन परदेशी मुसाफिर में तूने राग किया । इत्यादि कपट युक्त वचनों के प्रवाह से उस पुत्री का इस तरह तिरस्कार किया कि जिससे भयभीत बनी उसने सहसा मौन सेवन किया। इस ओर जहाज जब समुद्र किनारे पहुँचा और वह जहाज को छोड़कर कुरुचन्द्र के साथ ताराचन्द्र रथ में बैठा। फिर आगे चलते वे जब श्रावस्ती नगरी के बाहर पहुँचे तब उसका आगमन जानकर राजा ने घर में प्रवेश करवाया। राजा के पूछने पर कुमार ने भी अपना सारा वृत्तान्त सुनाया, फिर प्रसन्न हुए राजा ने कुरुचन्द्र को मन्त्री बनाया और अति प्रशस्त दिन में ताराचन्द्र को राज्य सिंहासन पर बैठाया और स्वयं ने दीक्षा लेकर श्रेष्ठ साधना कर मरकर देवलोक में पहुँचे । अनेक रथ, योद्धा, हाथी, घोड़े और वृद्धि होते निधान वाला राजा ताराचन्द्र भी राज्य को निष्पाप रूप से भोगने लगा। चारण मुनिश्वर के कथनानुसार धर्म की अत्यन्त भावपूर्वक एकाग्र चित्त से आराधना करने लगा, और जैनेश्वर भगवान की प्रतिमा की पूजा करने लगा। एक समय अनियत विहार की विधि का पालन करते हुये बहुश्रुत श्री विजय सेन सूरि जी वहाँ पधारे। बड़े वैभव के साथ ताराचन्द्र ने उनके पास जाकर वन्दना की और सविशेष धर्म सुनने के लिए बस्ती (स्थान) देकर अपने घर में रखा। फिर वह हमेशा नय विभाग से युक्त विविध अर्थों के समूह से शोभते
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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