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________________ श्री संवेगरंगशाला 1 आठवाँ राजा के अनियत विहार की विधि द्वार : - ऊपर गृहस्थ और साधु सम्बन्धी अनियत विहार की चर्चा की है, अब से ही केवल राजा सम्बन्धी कहता हूँ | क्योंकि - चिरकाल के अत्यन्त पुण्य के भंडार और भावि कल्याण वाला कोई जीव राजा होकर भी अत्यन्त प्रशम रस वाला, परलोक से डरे चित्तवाला विषय सुखों को सम्यक्तया विष समान मानने वाला मोक्षसुख प्राप्ति में एक लक्ष्य वाला, जब आराधना करने की इच्छा करता है तब परदेश में जाते शत्रु राजा की ओर से विघ्नों का संभव होने से अपने ही देश में जैन प्रतिमा को वंदन करे उतने ही देश में उनका अनियत विहार होता है । वह हाथियों के समूह उदार श्रेष्ठ सुभटों के समूह और घोड़े और रथ के समूह से घिरा हुआ भी उस परदेश में तीर्थों को वंदनार्थ प्रस्थान करे तो 'शत्रुराजा अपने राज्य के हरण करने की शंका से क्रोधित हो अथवा उसका देश स्वायी रहित है ऐसा मानकर शत्रुराजा उसका हरण करने का कारण हो जाता है । इस कारण से स्वामिभक्त, गुणवान, शास्त्रार्थ के ज्ञान में कुशल, अपने समान राज्य का वफादार मन्त्री को राज्य भार सौंप कर जीतने योग्य वर्ग को जीतकर, देश को स्वस्थ बनाकर महाभंडार को साथ लेकर, अपनेअपने कार्यों में भक्ति वाले प्रधान उत्तम पुरुषों को उनके योग्य कार्य में सुपर्द कर, लोगों को पीड़ा भय आदि न हो ऐसे राजा अपने देश में ही अति श्रेष्ठ पूजा करता हुआ जैन मंदिर और जैन प्रतिमा को वंदन नमस्कार करे । और मद्रिक परिणामी हाथियों के समूह से विशाल राजमार्ग हिनहिनाहट करते घोड़ों की कठोर खूर की आवाज से परस्पर जोर से चीख हाँक करने से आवाज द्वारा घोर के समूह को चारों तरफ फैलाते, अति उज्जवल छत्रों से प्रकाश के विस्तार को ढांकते हुए अपने देश में रहे जैन मंदिरों के आदरपूर्वक दर्शन करता है, उस राजा को देखकर कौन मनुष्य धर्म प्रशंसा को नहीं करे ? अथवा ऐसे उत्तम मनुष्यों से पूजित और सौम्य आनन्द दायक जैन धर्म को मोक्ष का एक हेतुभूत मानकर कौन एक चित्त से स्वीकार न करे ? इस तरह धर्म के श्रेष्ठ कर्त्तव्यों को पालन करने वाला वह राजा कई बार जैन कथित नये द्वारा विषयों की निंदा करे, कई बार महामुनियों के चारित्र को एकाग्र मन से सुने, तो कई बार मन्त्री सामंतो के साथ प्रजा की चिन्ता भी करे, कई बार धर्म के विरोध को देखकर उसे सर्वथा रोक दे, किसी समय अपने परिवार को उपयोग पूर्वक समझाये कि - अरे ! सम्यक् रूप देखो ! विचार करो ! संसार में कुछ भी स्तर नहीं है, क्योंकि जीवन बिजली समान चंचल है, सारी १३६ को भर देते, हर्ष से आकाश को भी गूंजाते भयजनक पैदल सेना सूर्य की किरणों के
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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