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________________ १३५ श्री संवेगरंगशाला सत्त्व वाले होने के कारण विहार करते वे सेलकपुर पधारे और मृगवन उद्यान में स्थिरता की । वहाँ प्रीति के बंधन से मंड्डुक राजा वंदनार्थ आया और धर्म कथा सुनकर प्रतिबोधित प्राप्त कर वह श्रावक बना । उसके बाद सूरिजी को रोगी और अत्यन्त दुर्बल शरीर वाले देखकर उसने कहा - हे भगवन्त ! मैं निमित्त बिना तैयार हुआ निर्दोष आहार, पानी, औषधादि से आप की चिकित्सा करूँगा, उसे सुनकर आचार्य श्री ने स्वीकार किया, और फिर राजा ने उनकी औषधादि क्रिया की । इससे सूरि जी स्वस्थ शरीर वाले हो गये, परन्तु प्रबल मादक रस की द्धि आदि में रागी हो गये और इससे साधु के गुणों से विमुख बनकर वे वहीं स्थिर रहने लगे । इससे पंथक सिवाय शेष साधु उनको छोड़कर चले गये । फिर चौमासी की रात्री में गाढ़ सुख नींद सोए उनको पंथक ने चौमासी अतिचार को खमाने के लिए मस्तक से पाद स्पर्श किया, इससे वे जाग गये और क्रोधयुक्त सूरिजी ने कहा- कौन दुराचारी मस्तक से मेरे पैरों में घर्षण करता है ? उसने कहा - हे भगवन्त ! मैं पंथक नाम का साधु चौमासिक क्षमायाचना करता हूँ, एक बार मुझे क्षमा करो, फिर ऐसा नहीं करूँगा, इससे संवेग को प्राप्त करते सूरि जी ने इस प्रकार से कहा- हे पंथक ! रस - गाख आदि के जहर से उपयोग भूले हुए मुझे तूने श्रेष्ठ जागृत किया है, मुझे अब से यहाँ पर स्थिर वास रहने के सुख से क्या प्रयोजन है ? मैं तो विहार करूँगा उसके बाद वे सूरि जी अनियत विहार से विचरने लगे और विहार करते उनके पूर्व के शिष्य भी पुन: आकर मिल गये । फिर कालान्तर में कर्म रूपी रज का नाश करके प्रबल सुभर रूप मोह को चकनाचूर करके शत्रुंजयगिरि ऊपर उन्होंने अनुत्तर मोक्ष सुख प्राप्त किया । इस प्रकार स्थिरवास के दोषों को और उद्यमशील विहार के गुणों को जानकर कौन कल्याण कुशल चाहने वाला अविहार का पक्ष करके स्थिरवास रहे ? और स्थिरवास का यक्ष करने से गृहस्थ राग और अपने संयम में लघुता आती है, लोगों के उपकार में अभाव आ जाता है, अलग-अलग देशों का आचारादि विज्ञान के जानने का अभाव होता है और जैनाज्ञा की विराधना इत्यादि दोष होते हैं । कालादि दोष से यह नियत विहार से विचरण रूप न हो तो भी भाव से नियम से संथारा अन्य स्थान बदलना इत्यादि भी विधि करनी चाहिये । इस तरह पापमैल को धोने में जल समान और परिक्रम विधि आदि चार मुख्य वाली संवेग रंगशाला रूपी आराधना के पंद्रह अन्तर द्वारा वाला प्रथम द्वार में यह अनियत विहार नामक सातवाँ द्वार पूर्ण हुआ ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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