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________________ श्री संवेगरंगशाला १३७ ऋद्धियाँ जल तरंग सदृश चपल हैं । परस्पर के राग भी बन्धनों के समान शान्त देने वाला नहीं है । मृत्यु तो हमेशा तैयार खड़ी है, और वस्तु के भोगादि सामग्री के फल असार है । सुख का संभव अल्प है और उसके परिणाम भोगने का कर्म विपाक अत्यन्तदारुण है और प्रमाद का सेवन असंख्य दुःख काकर्त्ता है । समग्रदोषों का मुख्य कारण जो मिथ्यात्व है उसका त्यागपूर्वक का मनुष्य जन्म दुर्लभ है, और धर्म करने की उत्तम सामग्री तो इससे भी अति दुर्लभ है । तीनों लोक रूप चक्र को पीड़ा करने में विजय प्राप्त करने वाला जो काम रूपी मल्ल को चकनाचूर करने में समर्थ भवसमुद्र से तरने वाले श्री वीतरागदेव मिलने भी दुर्लभ हैं । रागरहित गुरुदेव भी दुर्लभ हैं, सर्वज्ञ का शासन भी दुर्लभ है और दुर्लभ भी सर्व मिलने पर भी उसमें जो धर्म का उद्यम नहीं करता वह तो महा आश्चर्य है । इस तरह समीप रहने वाले वर्ग को समझाये, किसी समय वह गीतार्थ संविज्ञ आचार्यादि की सेवा भी करे । और वे आचार्य भी उसे युक्ति संगत गंभीर वाणी से बुलाये जैसे कि - हे राजन् ! प्रकृति से ही बुद्धिमान तुम्हारे समान पुरुष जैन वचन द्वारा अशुभ कर्म बन्धन के कारणों को जानकर अन्य अपराधी के प्रति भी लेशमात्र प्रद्वेश नहीं कर, और मोक्ष की ही एक अभिलाषा वाला वह नमते राजा और देवों के मुकट में लगे हुए रत्नों की क्रान्ति से प्रकाशमान चक्रवर्तीत्व अथवा देवों का प्रभुत्व इन्द्रपद की इच्छा भी नहीं करे। लेकिन जेल में रहे कैदी के समान शारीरिकमानसिक अनेक तीव्र दु:ख समूह की अतीव व्याकुलता वाला और प्रकृति से ही भयंकर संसार से शीघ्र छुटकारा प्राप्त करने की इच्छा करे । दुःख से पीड़ित को देखकर उनका दुःख अपने समग्र अंग में व्याप्त हो जाये ऐसे करूणा प्रधान चित्तवाले बन कर दीन - अनाथों की अनुकम्पा करे, और सम्यक्त्व की शुद्धिको चाहने वाला उन जीव अजीवादि समस्त पदार्थों के को जैनाज्ञानुसार सम्यग् सत्य माने । काम, क्रोध, लोभ, छह अहंकारी अंतरंग शत्रु हृदय में स्थान बनकर न रहे जाए ऐसी सदा सावधानी रखे । संकिलष्ट चित्तवाले की सर्व क्रियाएँ निष्फल जाती हैं, ऐसा जानकर संकलेश को निष्फल करना अथवा क्रियाओं को सफल करने के लिए सदा मन की शुद्धि को धारण करना चाहिये । जहर से मुक्त धार वाली भयंकर तलवार से अंग छेदन करने के समान जिस वाणी श्रोता दुःखी हो ऐसी वाणी का किसी प्रकार भी उपयोग न करे। उत्तम ल में जन्म लेनेकु विस्तार सर्वभाव हर्ष, मान और मद
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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