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________________ ૧૦ષ્ય श्री संवेगरंगशाला कंकणों को निकाल दिया, एक क्षण के बाद पुनः राजा ने पूछा- अरे ! उस सुवर्ण के कंकणों की आवाज अब क्यों नहीं सुनाई देती ? मनुष्यों ने कहास्वामिन् ! केवल एक-एक कंकण होने से परस्पर टकराने के अभाव में इस समय आवाज किस तरह आ सकती है ? राजा को आनन्द हुआ! इस अकेले कंकण में कोई आवाज नहीं है शान्त वातावरण है निश्चय अकेले जीव को भी किसी प्रकार का अनर्थ नहीं होता है जितने प्रमाण में पर वस्तु का संग है उतने प्रमाण में अनर्थ का फैलाव होता है अतः मैं भी संग को छोड़कर निसंग बनूं। इस तरह संवेग को प्राप्त करते राजा को तुरन्त पूर्व जन्म में आगधना किया चारित्र और श्रत का अनुस्मरण-स्मृति रूप जाति-स्मरण ज्ञान प्रकट हुआ, साथ ही वह दाह ज्वर भी कर्म की अनुकूता के कारण दूर हो गया, उसके बाद महाभाग राजा अपने स्थान पर पुत्र को स्थापन कर प्रत्येक बुद्ध का वेश धारण करके सर्व संग का त्याग कर भगवन्त समान वह अकेले नगर के बाहर जाकर उद्यान में काउस्सग्ग ध्यान में खडे रहे । इस तरह नमि राजर्षि काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर रहने से उसी समय सारी प्रजा सर्वस्व नाश हो जाने के समान, अत्यन्त स्नेह से बेचैन चित्त होने के समान, महारोग से दुःखी हुये के समान करूण विलाप करती व्यवहार से सर्व दिशाओं को भर दे इस तरह कोलाहल करती आंसु जल से आँखें भीगी करती रो रही थीं, फिर काउस्सग्ग से लम्बे भुजा रूप परिधि वाला मानो मेरू पर्वत हो, ऐसे निश्च न नमि राजर्षि को देखकर इन्द्र ने विचार किया कि-नमि मुनि ने साधुता स्वीकार की है उसकी समाधि वर्तमान में कैसी है ? उसके पास जाकर प्रथम परीक्षा करूँ, ऐसा सोचकर ब्राह्मण का रूप धारण कर इन्द्र लोगों के समूह में अति विलाप करता है नगर भयंकर आग से जलता हुआ बताकर नमि राजर्षि को कहा कि-हे मुनि पुंगव ! आज मिथिला में सर्वत्र लोग करूण विलाप कर रहे हैं उसके विविध शब्द क्यों सुनाई देते हैं ? नमि राजर्षि ने कहा-जैसे महा छाया वाला और फल फूल से मनोहर वृक्ष वायु के वेग से टूट जाता है शरणरहित दुःखी हुए पक्षी आनन्द करते हैं वैसे ही नगरी का नाश होते अत्यन्त शोक से पीड़ित अति दुःख से लोग भी विलाप करते हैं । इन्द्र ने कहा-यह तेरी नगरी और क्रीड़ा के महल भी प्रबल अग्नि से कैसे जल रहे हैं ? उसे देखो ! और भुजा रूपी नाल को ऊँची करके, अतीव प्रलाप करती 'हे नाथ ! रक्षण करो।' ऐसा बोलती अति करुणामय अन्तःपुर की स्त्रियों को देखो | नामि मुनि ने कहा-पुत्र, मित्र, स्वजन, घर और स्त्रियों को छोड़ने वाला मेरा जो कुछ भी हो तो वह जले, उसके अभाव में मिथिला जलती हो उसमें मेरा क्या जलता है ? इस तरह हे भद्र ! नगरी को देखने से भी मेरा क्या प्रयोजन है ?
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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