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________________ श्री संवेगरंगशाला १०७ जो उत्तम संयम से श्रेष्ठ समाधि में लीन है, वे सर्व पाप स्थानों से मुक्त हैं उनका मन, मित्र, स्वजन, धन आदि का विनाश होते देखते हैं फिर भी निश्चल पर्वत के समान थोड़ा भी चलायमान नहीं होता है। इस विषय में सुसमाधि के निधान रूप भगवन्त श्री नमि राजर्षि दृष्टान्तभूत हैं । वह इस प्रकार से : नमि राजषि की कथा पर्वत, नगर, खान, श्रेष्ठ शहर और धनधान्य से समृद्धशाली गाँवों से रमणीय विदेह नाम के देश में मिथिला नगरी थी। उस देश का पालन न्याय, विनय, सत्य, शौर्य, सत्त्व आदि विशिष्ट गुणों से शोभित और जगत में यश फैलाने वाला नमि नामक राजा राज्य करता था। उस राजा के राज्य में खण्डन और करपीडण था परन्तु वह तरूणी स्त्रियों के ओष्टपुट को तथा स्तनों का ही था, अन्य किसी स्थान पर नहीं था। और गुण को गेक करके वृद्धि करने का व्याकरण में ही सुना जाता था, परन्तु प्रजा में कोई अन्याय से धन या सुख को प्राप्त नहीं करता था, और विरोध तथा उपेक्षा भी उत्तम कवियों के काव्य में अलंकार रूप में ही थी, प्रजा में विरोध उपेक्षा नहीं थी, ऐसे विविध गुणों वाले और अति महिमा से शत्र को नाश करने वाला वह राजा इन्द्र के समान विषयों को भोगते काल व्यतीत करता था। किसी समय उस राजा को वेदनीय कार्य के वश प्रलयकाल के अग्नि समान महा भयंकर दाह ज्वर हआ और उस रोग से वह महात्मा वज्र की अग्नि की ज्वालाओं में पड़ा हो, इस तरह शरीर से पीड़ित उछलते, लेटते और लम्बे श्वांस छोड़ने लगा उत्तम वैद्यों को बुलाया, उन्होंने औषध का प्रयोग किया, परन्तु संताप लेशमान भी शान्त नहीं हुआ। लोक में प्रसिद्ध हुए अन्य मन्त्र तंत्रादि के जानकारों को भी बुलाया, वे भी उस रोग को शान्त करने में निष्फल होने से वापिस चले गये, जलन से अत्यन्त पीड़ित उसे प्रतिक्षण केवल चन्दन रस से और जल से भिगा हुआ ठंडे कमल के नाल से थोड़ा आधारभूत आराम मिलने से पति के दुःख से दुःखी हुई रानियाँ उसके निमित्त एक साथ सतत चन्दन की मालिश करने लगीं। उनके हिलते कोमल भुजाओं में परस्पर टकराते सुवर्ण कंकणों से उत्पन्न हुआ अन्य आवाज को दबा कर रण झंकार की आवाज सर्वत्र फैल गई। उसे सुनकर दुःख होने से राजा ने कहा-अहो ! यह अत्यन्त अशान्तकारी आवाज कहाँ से प्रगट होकर फैल गई है । सेवकों ने कहा-हे देव ! यह आवाज चन्दन को घिसती रानियों के सुवर्ण कंकणों में से उत्पन्न हुई है। फिर राजा के शब्द सुनकर रानियों ने भुजा रूपी लता के ऊपर से एक-एक रखकर शेष सभी
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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