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________________ १०६ श्री संवेगरंगशाला निश्चल मोक्ष की अभिलाषा वाले, सर्वसंग के त्यागी मुमुक्षु आत्माओं यही निश्चय परम सुख है कि उनको कोई भी प्रिय और अप्रिय नहीं है। इस प्रकार नमिमुनि का प्रशममय कथन सुनकर इन्द्र ने नगर का जलाना बन्द कर फिर इस प्रकार कहने लगे-तू नाथ है, रक्षणकारक है, और शरण देने वाला है, इसलिए शत्र के भयवश पीड़ित ये लोग तेरे दृढ़ भजदण्ड रूपी शरण में आए हैं इसलिए नगर के किले के दरवाजे को सांकल से बन्द करवा कर, शस्त्रों को तैयार करवाकर फिर तुझे दीक्षा लेना योग्य है। मुनि ने कहा-हा श्रद्धा यही मेरी नगरी है उसका मैं संवररूपी सांकल से दुर्गम हूँ, धृतिरूपी ध्वजा से युक्त क्षमा रूपी ऊँचा किल्ला बनाया है और वहाँ कर्म शत्रु विनाशक तप रूपी बाणों से शोभित पराक्रम रूप धनुष्य भी तैयार किया है। इस तरह मैंने रक्षा की है, तो इस समय मेरी दीक्षा क्यों योग्य नहीं है ? इन्द्र ने कहाहे भगवन्त ! विविध उत्तम महल बनकर के फिर तुम्हें दीक्षा अंगीकार करने योग्य है । नमि ने कहा-हे भद्र ? मार्ग में घर कौन तैयार करे ? पण्डितजन को तो जहाँ जीव का स्थिरता हो वहीं घर बनाना योग्य है । इन्द्र ने कहालोगों की कुशलता के लिए क्षुद्र चोर आदि शत्रुओं को मारकर तुम्हें दीक्षा लेना योग्य है । ऋषि ने कहा-ये बाह्य चोरादि का हनन करना वह मिथ्या है मेरी आत्मा का अहित करने वाला उन कर्मों का निश्चय नाश करना योग्य है। इन्द्र ने कहा-हे भगवन्त ! जो राजा नमते नहीं हैं उन सबको शीघ्र जीतकर फिर तुम्हें दीक्षा लेना उचित है । मुनि ने कहा-जो इस संसार में अति दुर्जय आत्मा है उसको जीतने से ही एक हजार योद्धाओं का परम विजेता होता है । अतः मुझे आत्मा (कर्म) के साथ युद्ध करना उपयुक्त है, मोक्षार्थी को निष्फल बाह्य युद्ध करने से क्या लाभ ? जिसने क्राध, लोभ, मद, माया और पाँचों इन्द्रियों को जीत लिया उसने जोतने योग्य सर्व को जोत लिया है। जिसने इन क्रोधादि को जीत लिया उसकी कीर्ति सिद्ध क्षेत्र के समान शाश्वत तीनों लोक में फैलकर स्थिर हो जाती है । यह सुनकर भक्ति भरे हृदय से इन्द्र ने पुनः महायश वाले नमिराजर्षि को कहा-बहुत यज्ञों को करवा कर, ब्राह्मण आदि को भोजन देकर, और दीन-दुःखी आदि को दान देकर तुम्हें साधु जीवन को स्वीकार करना अच्छा है, अथवा गृहस्थाश्रम को छोड़कर आप सयय की क्यों इच्छा करते हैं ? हे राजन् ! तुम पोषह का अनुरागी बनकर यहीं गृहस्थ में पौषध-धर्म में रहो । नमि ने कहा-लाखो दक्षिणारों से युक्त सुन्दर यज्ञ कराने से भी संयम अत्यधिक गुणकारक है और घर में रहकर महिने-महिने उपवास को पारणा में कुशाग्र जितना खाये ऐसा तपस्वो भी सर्वसंग के त्यागी भ्रमण
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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