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________________ १०६ श्री संवेगरंगशाला है, इसलिए इसके बाद सिद्धिपुरी का श्रेष्ठ द्वार और मनवांछित सर्व कार्य की सिद्धि का द्वार-समाधिद्वार कहते हैं : पांचों समाधिद्वार और उसकी महिमा:-समाधि दो प्रकार की है, द्रव्य समाधि और भाव समाधि । उसमें जो द्रव्य स्वभाव से श्रेष्ठ हो, उसके उपयोग से द्रव्य समाधि होती है, अथवा तो अत्यन्त दुर्लभ स्वभाव से ही सुन्दर और इष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का यथाक्रम सुनकर, देखकर, खाकर, सूंघकर और स्पर्श करके प्राणी जो प्रसन्नता को प्राप्त करता है वह द्रव्य समाधि है। यहाँ पर इस द्रव्य समाधि का अधिकार-प्रयोजन नहीं है अथवा तो कोई द्रव्य समाधि को भी कभी निश्चय से कोई भाव समाधि में निमित्त रूप मानते हैं, वे कहते हैं कि-मन की इच्छानुसार भोजन करके मनोज्ञ आसन पर सोये, मनोज्ञ घर में रह कर मुनि मनोज्ञ ध्यान को करता है। भाव समाधि तो एकान्त से मन के विजय द्वारा होती है मन का विजय राग द्वेष का सम्यग् त्याग करने से होता है। और उसका त्याग अर्थात् विविध शुभाशुभ शब्दादि विषय प्राप्त होता है तो भी राग द्वेष का संवर करना चाहिये । इसलिए चंचल घोड़े समान निरंकुश गति वाला और उन्मार्ग में लगे मन को विवेक रूपी लगाम से दृढ़ काबू करके सुख के अर्थी सत्पुरुषों को समाधि प्राप्त करने में नित्यमेव सम्यक् प्रयत्न करना और धर्म के रागी को विशेष प्रयत्न करना चाहिये। उसमें भी अन्तिम आराधना के लिए उद्यमी मन वाले को तो सर्व प्रकार से विशेष प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि उसके बिना सूखपूर्वक धर्म और आराधना नहीं होती है। इह इस प्रकार असमाधि से दुःख हो, दुःखी को पुनः अर्तध्यान हो, धर्मध्यान न हो और धर्मध्यान बिना आराधना का मार्ग तो दूर है। एक समाधि बिना पुरुष को सभी प्रयोजन का सिद्ध करने वाली भी सामग्री मिली हो तो वह दावानल तुल्य दुःखदायी बनती है, और समाधि वाले को स्वादिष्ट-निरस भोजन करने पर, अच्छे खराब वस्त्र धारण करने पर, महल या स्मशानादि में रहने पर, अच्छे बुरे काल में और सम विषय अवस्था की प्राप्ति में भी नियम से हमेशा परम सुख ही होता है। तथा समाधि-जन्य सुख भोगने में भय बिना का, प्राप्त करने में क्लेश बिना का लज्जा से रहित, परिणाम से भी सून्दर स्वाधीन अक्षय सर्वश्रेष्ठ और पाप बिना का है। उत्तम समाधि में स्थिर सत्पुरुष यदि वह किसी को स्मरण की अपेक्षा न करे, अथवा दूसरे उनका स्मरण न करे (उपेक्षा करे) फिर भी केवल समाधिजन्य सुख की प्राप्ति से भी वे सम्पूर्ण सन्तुष्ट होते हैं। और ममत्व बिना का
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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