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________________ श्री संवेगरंगशाला १०५ सारा वृत्तान्त श्रेणिक राजा को कहा। राजा ने भो कहा-यदि किसी तरह वह चंडाल अपनी विद्या मुझे दे तो छोड़ दूंगा, अन्यथा इसको खत्म करना है चंडाल ने विद्या देना स्वीकार किया, फिर सिंहासन पर बैठे राजा विद्या का अभ्यास करने लगा। बार-बार प्रयत्न से विद्या को रटने लगे फिर भी जब विद्या राजा को प्राप्त नहीं हुई तब क्रोधित बने राजा ने चंडाल को उलाहना देते हुए कहा-अरे ! तू सम्यक् रूप से अभ्यास नहीं करता है। उस समय अभयकुमार ने कहा-हे देव ! इसमें इसका कोई भी दोष नहीं है, विनय से प्राप्त को विद्या स्थिर होती है और फलदायक होती है, अतः इस चंडाल को सिंहासन पर बैठाकर आप जमीन पर रहकर विनयपूर्वक अभ्यास करो कि जिससे अभी ही विद्या की प्राप्ति हो जाये ! राजा ने उसी ही प्रकार किया और विद्या उसी समय प्राप्त हो गई, फिर अत्यन्त स्नेही समान उस चंडाल का सत्कार कर छोड़ दिया। ___ इस प्रकार यदि इस लोक के तुच्छ कार्यों की साधना करने वाली विद्या भी हलके जाति को भी गरु को भावपूर्वक विनय करने से मिलती है, तो समस्त मनोवांछित प्रयोजना के साधन में समर्थ श्री जैन कथित विद्या ग्रहण करने में उसके दातार प्रति विनय नहीं करने वाला किस तरह पंडित हो सकता है ? अर्थात् कभी भी नहीं हो सकता है। और जिस विनय से धीर-विनीत पुरुषों को पत्थर के गढ़े हए देव भी सहायता करने मैं तत्पर होते हैं, तो अन्य वस्तु की सिद्धि का कौन-सा उपाय है ? धीर पुरुष विनय से सर्व सिद्धि कर सकते हैं। तथा श्रुतज्ञान में कुशल, हेतु कारण और विधि का जानकार मनुष्य भी यदि अविनीत हो तो उसे शास्त्रार्थ के जानकार ज्ञानियों ने प्रशंसा नहीं की है, और सम्यक्त्व, ज्ञान तथा चारित्र आदि गुणों की प्राप्ति में हेतुभूत विनय को करने में तत्पर पुरुष यदि बहुश्रुत न हो तो भी उसे बहुश्रुत के पद पर स्थापन करते हैं। जिसमें विनय है वह ज्ञानी है, जो ज्ञानी है उसकी क्रियायें सम्यक् हैं और जिसकी क्रियायें सम्यक है वही आराधना के योग्य है। इसलिए कल्याण की परम्परा को प्राप्त करने में एक समर्थ विनय में बुद्धिमान को एक समय मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। इस तरह संसाररूपी महा समुद्र को तैरने में जहाज समान और परिकर्म विधि आदि चार प्रकार वाली संवेग रंगशाला में आराधना का पन्द्रह अन्तर भेद द्वार वाला है, उस प्रथम मुख्य द्वार का विनय नामक चौथा अन्तर द्वार संक्षेप से कहा। अति विनय-विनम्र पुरुष को भी समाधि के अभाव में स्वर्ग-अपवर्ग को देने वाली आराधना सम्यग् नहीं होती
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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