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________________ १०४ श्री संवेगरंगशाला हूँ आज तू मुझे मिली है।' ऐसा बोलते अत्यन्त भयंकर शरीर वाला अति दुःप्रेक्ष्य एक राक्षस आया और उसने हाथ से उसे पकड़ी, उसने सत्य बात कही, उससे उसे छोड़ दिया। फिर बाग में जाकर सुखपूर्वक सोये माली को जगाया और कहा-हे सज्जन ! वह मैं यहाँ आई हूँ। माली ने कहा-ऐसी रात्री में आभूषण सहित तू किस तरह आई ? उसने जैसे बना था वैसा सारा कह दिया। इससे अहो ! सत्य प्रतिज्ञा वाली यह महासती है ऐसा विचार करते माली ने उसके पैरों में नमस्कार किया और उसे वहाँ से छोड़ दिया। वह फिर राक्षस के पास आई, उसने माली का वृत्तान्त कहा, इससे 'अहो! यह महाप्रभावशाली है कि जिसको उस माली ने भी छोड़ दी है' ऐसा सोचकर राक्षस ने भी पैरों में नमन कर उसे छोड़ दिया। फिर चोर के पास गई और पूर्व वृत्तान्त सुनाया महान महीमा देखकर सन्मान वाला बनो उसने भी वन्दन करके अलंकार साथ ही उसे घर भेज दिया। फिर आभूषणों सहित अक्षत शरीर वाली और अखण्ड शील वाली वह अपने पति के पास गयी और जैसा बना था वैसा सारा वृत्तान्त कहा। फिर प्रसन्न चित्त वाले उसके साथ समस्त रात सोई। प्रभात का समय हुआ, उस समय मंत्री पुत्र विचार करने लगा कि-इच्छानुसार चलने वाली, अच्छी रूप वाली समान सुख दुःख वाली और गुप्त बात को बाहर नहीं कहने वाली गम्भीर मित्र या स्त्री के सोने से जागते ही प्रातः दर्शन करते पुरुष को धन्य है। इस प्रकार विचार करते उसने उसको समग्र घर की स्वामिनी बना दिया, अथवा निष्कपट प्रेम से अर्पण हृदय वाले को कौन-सा सम्मान नहीं होता है ? ___ इसके बाद अभयकुमार ने पूछा कि-भाइयों! मुझे कहो इस तरह पति, चोर, राक्षस और माली इन चार में स्त्री के त्याग करने में दुष्कर कौन है ? इर्षालुयों ने कहा-स्वामिन् ! पति ने अति दुष्कर कार्य किया है कि जिसने रात्री में अपनी प्रिया को पर पुरुष के पास भेजी । क्षुधा वाले पुरुषों ने कहाराक्षस ने ही अति दुष्कर कार्य किया है कि जिसने बहुत काल से भूखा होते हुए भी भक्ष्य करने योग्य का भी भक्षण नहीं किया। फिर परदारिक बोलेहे देव ! एक माली ने दुष्कर कार्य किया है रात्री में स्वयं आई थी फिर भी छोड़ दिया। चंडाल ने कहा- कोई कुछ भी कहे परन्तु चोर ने दुष्कर किया है, क्योंकि उसने उस समय एकान्त स्थान से भी सोने के आभूषणों से युक्त उसको छोड़ दी। ऐसा कहने से अभयकुमार ने 'यह चोर है' ऐसा निर्णय करके चंडाल को पकड़वा कर पूछा–बाग में से आम की किस प्रकार से चोरी की है ? उसने कहा-हे नाथ ! मैंने श्रेष्ठ विद्या बल से चोरी की है, फिर यह
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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