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________________ श्री संवेगरंगशाला हुआ राजा ने लोगों को उस साधु के विषय में पूछा, तब किसी तरह लोगों द्वारा उसे नदी किनारे रहा हुआ जानकर वेश्याओं में अग्रसर मागधिका वेश्या को बुलाकर कहा कि हे भद्रे ! तू कुल बालक साधु को यहाँ ले आ। विनय से विनम्र बनकर 'ऐसा करूँगी' ऐसा उसने स्वीकार किया। मागधिका वेश्या कपटी श्राविका बनकर कई व्यक्तियों को साथ लेकर उस स्थान पर गई, वहाँ उसने साधु को वन्दन कर विनयपूर्वक इस प्रकार कहा-घर का नाथ पतिदेव स्वर्गवास होने से जिन मन्दिरों वन्दन करती यात्रार्थ घूमती फिरती मैं आपका नाम सुनकर यहाँ वन्दन के लिए आई हूँ। इससे हे मुनिश्वर ! भिक्षा लेकर मुझे प्रसन्न करो क्योंकि तुम्हारे जैसे सुपात्र में अल्पदान देने से भी शीघ्र स्वर्ग और मोक्ष के सुखों का कारण रूप होता है। इस तरह बहुत कहने से वह कुल बालक भिक्षार्थ आया, और उसने दुष्ट द्रव्य से संयुक्त लड्डु दिये, वह खाते ही उस समय उसे बदहजमी होने से बहुत अतिसार रोग हो गया, इससे अति निर्बल होने से करवट बदलने आदि में भी अशक्त हुआ। वेश्या ने उससे कहा-भगवन्त ! उत्सर्ग अपवाद मार्ग जानती हैं, गुरु-स्वामी और बन्धू तुल्य मानकर आपके रोगों को प्रासूक द्रव्यों से कुछ प्रतिकार करूँगी, इसमें भी यदि कुछ असंयम हो जाए तो शरीर स्वस्थ होने के बाद इस विषय में प्रायश्चित कर देना। अतः हे भगवन्त ! आप मुझे आज्ञा दीजिए, जिससे आप श्री की वैयावच्य (सेवा) करूँ, प्रयत्नपूर्वक आत्मा-जीवन की रक्षा करनी चाहिए कारण शास्त्र में इस प्रकार कहा है (औघ नियुक्ति गाथा ४४) कि "सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिये और किसी विशेष कारण से संयम का गौण करके भी जीवन की रक्षा करते साधु अति क्रम से-प्राणातिपात से बचे फिर प्रायश्चित करे परन्तु अविरति का आचरण नहीं करे।" इस प्रकार सिद्धान्त के अभिप्रायः का साररूप उसके वचन सुनकर उसने मागधिका को आज्ञा दी, इससे प्रसन्न होकर उसके पास रहकर सेवा करती, हमेशा शरीर को मसलना, धोना, बैठाना आदि सब क्रियाएँ करने लगी। कई दिन इस तरह पालन करके उसने औषध के प्रयोग से उस तपस्वी का शरीर लीला मात्र से स्वस्थ कर दिया। उसके बाद अति उद्भट श्रृंगार वाले उत्तम वेश धारण कर सुन्दर अंग वाली उसने एक दिन विकारपूर्वक मुनि को कहा-हे प्राणनाथ ! मेरी बात सुनो! गाढ़ राग वाली होने से प्रिय और सुख समूह की निधिरूप मुझे आप सेवन करें, अब यह दुष्कर तपस्या को छोड़ दो, प्रतिदिन शरीर का शोषण करने वाला वैरी रूप यह तप को करने से भी क्या लाभ है ? मोगरे
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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