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________________ श्री संवेगरंगशाला स्वयमेव तुझे समझाकर ले जाना उचित है क्योंकि ये दो और तीसरा तू भानजें हैं, मुझे किसी के प्रति भेदभाव नहीं है केवल मेरे घर आया है उसे जबरदस्ती मैं नहीं भेज सकता हूँ। यह उत्तर सुनकर रोष वाले उसने फिर चेटक को कहलवाया कि कुमार को भेजो अथवा जल्दी युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। ' चेटक राजा ने युद्ध स्वीकार किया, इससे समग्र सामग्री लेकर अशोक चंद्र शीघ्र वैशाली नगर पहुँचा और युद्ध करने लगा । केवल चेटक महाराजा ने उस अशोक चन्द्र के काल आदि दस सौतेले भाइयों को सफल अमोघ एक-एक बाण मारकर दस दिन में दस को मार दिया, क्योंकि निश्चय से उसने एक दिन में एक ही बाण मारने का नियम लिया था। अतः ग्यारहवें दिन भयभीत बने अशोक चन्द्र ने विचार किया-आज युद्ध करूँगा तो अब मैं खत्म हो जाऊँगा, इसलिए लड़ना योग्य नहीं है। इस तरह युद्ध भूमि में से जल्दी खिसककर दैव सहायता की इच्छा से उसने अट्ठम तप किया, उस अट्ठम तप के प्रभाव से सौधर्मेन्द्र और चमरेन्द्र भी पूर्व संगति को याद करके उसके पास आए और कहने लगे कि-भो देवानु प्रिय ! कहो, तुम्हें क्या इष्ट दें ? राजा ने कहा-मेरे वैरी चेटक को मार दो ! शकेन्द्र ने कहा-परम समंकित दृष्टि श्रावक है इसे हम नहीं मार सकते हैं, यदि तुम कहो तो उसकी और तुम्हारी भी सहायता करूँगा। अच्छा ऐसा भी करना। ऐसा कहकर अशोक चन्द्र ने चेटक राजा के साथ युद्ध आरम्भ किया, इन्द्र की अबाधित सहायता के प्रभाव से दुदर्शनीय तेजस्वी बनकर वह शत्रु के पक्ष मारता हुआ जब चेटक के पास पहुंचा, तब यम के दूत समान चेटक राजा ने कान तक खींचकर अमोघ बाण उसके ऊपर फेंका, और वह बाण चमरेन्द्र ने बनाई हुई स्फटिक की शिला के साथ टकराया, उसे देखकर चेतक राजा सहसा आश्चर्यचकित हुआ, फिर अमोघ शस्त्र स्खलित हुआ इससे अब मुझे युद्ध करना योग्य नहीं है। ऐसा विचार कर वह शीघ्र नगर में गया। लेकिन चमरेन्द्र और शकेन्द्र ने निर्माण किया रथयुद्ध, मुशलयुद्ध, शिलायुद्ध और कंटकयुद्ध करने से उसकी चतुरंग सेना बहुत खत्म हुई। फिर नगर का घेराव डालकर अशोक चन्द्र बहुत समय पड़ा रहा, परन्तु ऊँचे किले से शोभता वह नगर किसी तरह से खण्डित नहीं हुआ। जब नगरी तोड़ने में असमर्थ बने राजा शोकातुर हुआ तब देवी ने कहा कि-जब कुल वाहक साधु मागधिका वेश्या का सेवन करेगा तब राजा अशोक चन्द्र वैशाली नगरी को काबू करेगा, कामरूपी संपुट से अमृत के समान उन शब्दों का पान करके हर्ष से प्रसन्न मुख
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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