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________________ श्री संवेग रंगशाला ८३ 1 की कली समान दाँत वाली मुझे प्राप्त किया है वह ! हे पतिदेव ! आपने तप का ही फल प्राप्त किया है । अथवा दुष्ट श्वापद आदि समूह में दुःख पूर्वक रहने योग्य इस अरण्य का तुमने क्यों आश्रय लिया है ? चलो रति के समान स्त्रियों से भरे हुये सुन्दर मनोहर नगर में चलें । अरे भोले ! तू धोखेबाज से ठगा गया है कि जिससे मस्तक मूंडाकर यहाँ रहता है, तू हमेशा मेरे भवन में मेरे साथ क्यों विलास नहीं करता । हे नाथ ! तेरे थोड़े विरह में भी निश्चित ही मेरे प्राण निकल जाते हैं, अतः चलो साथ ही चलें और दूर-दूर देश में रहे तीर्थों को वन्दन नमस्कार करेंगे । इससे तेरे भी और मेरे भी समस्त पाप क्षय हो जायेंगे । इसलिए हे नाथ ! जब तक इस जन्म में थोड़ा कुछ भी जीयें तब तक पाँच प्रकार के विषयों का सेवन करें। इस प्रकार उसने विचारपूर्वक कोमल वाणी द्वारा कहने से संक्षोभ हुए उसने धैर्य छोड़कर दीक्षा का त्याग किया । इससे अत्यन्त प्रसन्न मन वाली वह उसे साथ ले अशोक चन्द्र राजा के पास पहुँची और चरणों में गिरकर उसने विनती की कि - हे देव ! वह यही कुल बालक मुनि मेरा प्राणनाथ है, इसलिए अब इसके द्वारा जो करवाना हो उसकी आज्ञा दीजिए । राजा ने कहा - हे भद्र ! तू ऐसा कार्य कर कि जिससे यह नगर नष्ट हो जाए, तब उसने आज्ञा को स्वीकार कर त्रिदण्डी का रूप धारण करके वह नगर में गया, वहाँ फिरते उसने श्री मुनि सुव्रत स्वामी का स्तूप देखकर विचार किया कि - निश्चय ही इस स्तूप के प्रभाव से ही नगरी नष्ट नहीं होती है । इसलिए मैं ऐसा करूँ कि जिससे नगरवासी मनुष्य स्वयं ही इस स्तूप का नाश करें, ऐसा सोचकर उसने कहा - अरे लोगों । यदि इस स्तूप को दूर करो तो शीघ्र ही शत्रु सैन्य स्वदेश में चला जायेगा, नहीं तो जिन्दगी तक नगरी का घेराव नहीं उठेगा । इस तरफ राजा को भी संकेत किया जब लोग स्तूप को तोड़ें तब तुम्हें भी समग्र अपनी सेना को लेकर दूर चले जाना । फिर लोगों ने पूछा - हे भगवन् ! इस विषय पर विश्वास कैसे होगा ? उसने कहा - स्तूप को थोड़ा तोड़कर देखो, शत्रु सैन्य दूर जाती है या नहीं जाती, इस बात का विश्वास हो जायेगा । ऐसा कहने से लोगों ने 'स्तूप के शिखर के अग्रभाग को तोड़ने लगे इससे शत्रु सैन्य जाते हुये देखकर विश्वास हो जाने से सम्पूर्ण स्तूप को भी उन्होंने तोड़ दिया और सैन्य वापिस घुमाकर राजा ने नगर पर हमला कर नगर को काबू कर लिया, लोगों को विडम्बना की, और चेटक राजा जैन प्रतिमा को लेकर कुएं में गया। इस प्रकार सद्गुरु के प्रत्य निकलने के दोष से कुल बालक मुनि ऐसे पर्वत के समान महापाप
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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