________________
I
अतः इसे प्रार्थनासूत्र कहा गया है । और ये तीसरा प्रणिधान, चैत्यवंदन के अंत में अवश्य करना चाहिये । प्रदक्षिणात्रिक और प्रमार्जनात्रिक इन दोनो के अर्थ सुगम है समज में आवे वैसे है। तीन रत्न (दर्शन. ज्ञान चारित्र) की प्राप्ति के लिए परमात्मा के दाहिने हाथ की ओरसे तीन प्रदक्षिणा देना । तथा सतरह संडासे की प्रमार्जना रूप जीवदया के लिए चैत्यवंदन के स्थान पर खेस, चरवले से या मुनिओं को रजोहरण से तीन बार भूमि प्रमार्जना करनी चाहिये । मूल गाथा मे त्ति याने इति शब्द है, दसत्रिक का विवेचन पूर्ण हो गया है, इस प्रकार सूचन के लिए त्ति का प्रयोग किया गया है।
२ पांच अभिगम :
सच्चित्त- दव्व मुज्झण - मच्चित्तमणुज्झणं मणेगतं । इन साडि - उत्तरासंगु अंजली सिरसि जिण दिडे
||20 ||
( अन्वय :- सचित दव्व मुज्झण- मच्चित्तमणुज्झणं मणेगत्तं, इग- साडी उत्तरासंगु, जिण - दिहे सिरसि अंजली ॥२०॥
शब्दार्थ :- सच्चित्त - दव्वं सचित्त द्रव्यों का, उज्झणं त्याग, अच्चित्तं = अचित्त द्रव्य का, अणुज्झणं त्याग नही, मणेगत्तं = मन की एकाग्रता, इन साडि = एक शाटक, अखंड वस्त्र उत्तरासंगु उत्तरासंग (खेस), अंजली = हाथ जोडना, सिरसि मस्तक पर, जिणदिट्ठे- जिनेश्वर प्रभु को देखते ही ॥२०॥
= =
गाथार्थ :- सचित वस्तुओं का त्याग करना, अचित वस्तु रखना, मन की एकाग्रता, एकशाटक उत्तरासंग, और जिनेश्वर प्रभु के दर्शन होते ही ललाट पर हाथ जोडना ||२०|| विशेषार्थ :- पास मे रहे हुए खाद्य पदार्थ, सूंघने के फूल, अथवा पहनी हुई फूल माला विगेरे सचित द्रव्य का त्याग करके चैत्य में (मंदिर मे ) प्रवेश करना। यदि ये वस्तुएँ प्रभु की दृष्टि मे आगयी हो तो उसका उपयोग नहीं करना चाहिये । ये भी एक प्रकार का परमात्मा का विनय है। ये प्रथम अभिगम है। पहने हुए आभूषण, वस्त्र, रूपये, आदि का त्याग नही करना, दूसरा अभिगम है। मन की एकाग्रता रखना, तीसरा अभिगम है। दोनों किनारों पर लच्छियों वाला अखंड (सलंग) उत्तरासंग (खे स ) पहने रहना चौथा अभिगम और परमात्मा के दर्शन होते ही नमो जिणाणं कहकर अंजलिपूर्वक, मस्तक झुकाकर प्रणाम करना पांचवाँ अभिगम है। इन पांचो अभिगमों को परमात्मा के पास जाते समय अवश्य ध्यान में रखना चाहिये। ये पांच अभिगम अल्प ऋद्दि वाले श्रावक को ध्यान मे रखकर कहे गये है ।
22
•